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भारतीय कृषि

भारत में कृषि का योगदान सकल घरेलू उत्पाद में केवल 17.6% है परन्तु इससे भारत की लगभग 58.2% आबादी को रोज़गार मिलता है. कृषि क्षेत्र का अर्थव्यवस्था में बड़ा महत्व है –

  1. खाद्य सुरक्षा इसी से मिलती है.
  2. उद्योगों के लिए कच्चा माल मिलता है.
  3. रोज़गार का सबसे बड़ा स्रेात है.
  4. ग्रामीण आय का सबसे बड़ा स्रोत है जिससे ग्रामीण क्षेत्र की क्रय शक्ति बढ़ती है और बाज़ार को लाभ होता है.
  5. निर्यात से होने वाली आय में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 10.23% है.
  6. भारत दुनिया में दलहन का सबसे बड़ा उत्पादक है.
  7. वर्ष 2016-17 में भारत में खाद्यान्न के उत्पादन का अनुमान 275.11 मिलियन टन था और वर्ष 2017-18 में यह बढ़कर 277.49 मिलियन टन होने का अनुमान है.

शब्दावली –

मिश्रित श्यसन (Mixed Cropping) – विभिन्न प्रकार की फसलें एक ही खेत में एक साथ लेने को कहते हैं, उदाहरण के लिये कपास के साथ भिंडी उगाना

मिश्रित कृषि (Mixed Farming) – कृषि के साथ पशुपालन, रेशम कीट, मधुमक्खी पालन, मछली पालन आदि किया जाये तो उसे मिश्रित कृषि कहते हैं.

स्थानांतरित या झूम खेती (Shifting cultivation) – आदिवासी समुदाय व्दारा जंगल के वृक्ष काटकर खेती की जाती है, और कुछ समय बाद भूमि की उर्वरकता कम होने पर दूसरे स्थान पर वृक्ष काटकर खेती की जाती है तो उसे झूम खेती कहते हैं.

वाणिज्यिक या नकदी फसलें – उन व्यापारिक फसलों को कहते हैं जि‍नका उद्देश्य व्‍यापार करके धन अर्जित करना होता है. उदाहरण के लिये कपास, तम्बाकू, अफीम, चाय, गन्ना, तिलहन आदि.

खरीफ – बरसात के मौसम की फसल, आम तौर पर जून-जुलाई में बोई जाती है और अक्टूबर-नवंबर में कटाई होती है. धान, ज्वार, बाजरा, मक्का, कपास, मूंगफली, अरहर आदि.

रबी – यह जाड़े की फसल है. अक्टूबर-नवंबर में बुवाई करके मार्च-अप्रेल में कटाई होती है. गेहूं, चना, मटर, अलसी, सरसों आदि.

ज़ायद – यह गरमी की फसल है. तरबूज, ककड़ी, खीरा आदि.

उर्वरक – कृषि के लिये उर्वरक का बड़ा महत्व है. भारत उर्वरकों को सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता भी है. भारत के लिये अनुशंसित N:P:K का अनुपात 4:2:1 है.

सिंचाई – 10,000 हेक्टेयर से अधिक सिंचाई क्षमता वाली योजनाएं वृहत योजनाएं कहलाती हैं, 2000 से 10,000 हेक्टेयर तक की योजनाएं मध्यम और 2000 हेक्टेयर से कम सिंचाई क्षमता वाली योजनाएं लघु योजनाएं कहलाती हैं.

कृषि साख – 15 माह से कम समय का ऋण – अल्प अवधि ऋण कहलाता है, 15 माह से 5 वर्ष की अवधि का ऋण मध्य अवधि का ऋण और 5 वर्ष से अधिक अवधि का ऋण दीर्घकालीन ऋण कहलाता है.

कृषि जोत का वगीकरण – सीमान्त जोत – 1 हेक्टेयर तक, लघु जोत – 1 से 2 हेक्टेयर, अर्ध मध्यम जोत – 2 से 4 हेक्टेयर, मध्य‍म जोत – 4 से 10 हेक्टेयर, वृहत जोत – 10 हेक्टेयर से अधिक. कृषि गणना के अनुसार भारत में 2010-11 में कृषि जोतों का औसत आकार 1.16 हेक्टेयर है. छत्तीसगढ़ में कृषि जोतों का औसत आकार 1.5 हेक्टेयर है. नागालैंड में कृषि जोतों का आकार सबसे अधिक है और केरल में सबसे कम. देश में 67% सीमान्त और लघु कृषक हैं और उनके पास कृषि का केवल 29% रकबा है.

भूमि सुधार कार्यक्रम – संकुचित अर्थ में इसका तात्पर्य है – छोटे किसानों और कृषि मजदूरों के लाभ के लिये भूमि के स्वामित्व का पुर्ननिर्धारण. व्यापक अर्थ में भू-धारण की व्यवस्था में संराचनात्मक सुधार.

भूमि सुधार के उपाय

  1. ज़मीन्दाारी उन्मूलन
  2. काश्त्कारी सुधार, उदाहरण के लिए लगान का नियमन, पट्टों की सुरक्षा, पट्टेदारों को स्वातमित्व का अधि‍कार आदि.
  3. जोतों की अधिकमत सीमा का निर्धारण – सीलिंग – यह सीमा अलग-अलग राज्य में अलग-अलग है.
  4. चकबंदी
  5. भू-दान

किसान क्रेडिट कार्ड फसल ऋण की प्रक्रियाओं का सरलीकरण

राष्ट्रीय कृषि बीमा योजनाप्रकृतिक आपदाओं जैसे सूखा, बाढ़, ओला, चक्रवात, कीट आदि से होने वाली हानि के लिये किसानो को कवरेज. यह योजना भारतीय कृषि बीमा निगम क्रियांवित करती है. यह सभी किसानों पर लागू है बिना कर्जदार और कर्जदार तथा सभी जोतों वाले किसान. इसमें खाद्यान्न, तिलहन, गन्ना, आलू, कपास, अदरक, प्याज, हल्दी, मिर्च आदि को कवरेज है. छोटे और सीमान्त किसानों के लिए 10% अनुदान है. यह योजना 25 राज्यों और 2 संघ शासि‍त प्रदेशों में क्रियांवित है.

राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आर.के.वी.वाई.) 11 वीं पंचवर्षीय योजना से लागू. कृषि एवं संबंधित क्षेत्र के लिये अतिरिक्त केन्द्रीय सहायता. इसका उद्देश्य 11 वीं पंचवर्षीय योजना में कृषि एवं संबंधित क्षेत्र में 4% वार्षिक वृध्दि का था. अब इसमें आंशिक परिवर्तन करते हुए किसानों की आय को दुगना करने का लक्ष्य भी शामिल किया गया है.

प्राथमिक क्षेत्र की क्रांतियां –

  1. हरित क्रांति – खाद्यान्न के लिये 1960 के दशक से प्रारंभ
  2. श्वेत क्रांति – दुग्ध
  3. नीली क्रांति – मछली
  4. पीली क्रांति – तिलहन
  5. गुलाबी क्रांति – झींगा मछली

बागवानी भारत विश्व में मसालों का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है. फलों के उत्पादन में भारत का ब्राज़ील के बाद दूसरा स्थान है. प्रमुख फल आम, केला, पपीता, चीकू, अनार, आंवला, नारियल आदि हैं. सब्ज़ी उत्पादन में भारत का स्थान चीन के बाद दूसरा है. भारत काजू का सबसे बड़ा निर्यातक है.

पशुपालन एवं डेयरी भारत दूध का सबसे बड़ा उत्पादक है. विश्व में सबसे अधिक मवेशी भारत में हैं. दुनिया की कुल भैंसों का 57% गाय-बैलों का 14% भारत में है. भारत में 9.9 करोड़ भैंसे तथा 18.5 करोड़ गाय-बैल हैं.

मत्‍स्‍य पालन मछली उत्पाादन में भारत का स्थान विश्व में तीसरा है. राष्ट्र मंडल देशों में पहला स्थान है.

समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीदी की योजना

सरकार कुछ फसलों के लिये समर्थन मूल्य घोषित करती है. इसका तात्पर्य यह है कि यदि बाज़ार में प्रचलित मूल्य समर्थन मूल्य से कम हो तो सरकार इस बात की गारंटी देती है कि वह समर्थन मूल्य पर किसान की फसल खरीद लेगी. यह योजना अनेक फसलों के लिए लागू है परन्तु वास्तव में खरीदी का प्रबंध केवल गेहूं, धान, मक्का आदि‍ कुछ फसलों के लिये ही है. इन फसलों के लिये भी यह योजना केवल कुछ राज्यों जैसे पंजाब, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में ठीक प्रकार से चल रही है. अनेक बड़े राज्यों में जैसे उत्तर पदेश, बिहार आदि में इन फसलों की खरीदी की भी अच्छी व्यवस्था नहीं है. समर्थन मूल्य का निर्धारण किसान की लागत और न्यनूतम लाभ को जेाड़ कर कृषिगत लागत एवं मूल्य आयोग (Commission on Agricultural Costs and Prices -CACP) की अनुशंसा पर किया जाता है.

सार्वजनिक वितरण प्रणाली इस योजना का उद्देश्य निम्न आय वर्ग के लोगों को उचित मूल्य पर दैनिक उपभोग की वस्तुएं, विशेषकर खाद्यान्न उपलब्ध कराना है. इसे लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली कहते हैं. यह कार्य भारतीय खाद्य निगम व्दारा किया जाता है. यह 1 जून 1997 से लागू है. इसे खाद्यान्न सुरक्षा अधिनियम 2013 के व्दारा कानूनी जामा भी पहनाया गया है. छत्तीसगढ़ खाद्यान्न सुरक्षा कानून लागू करने वाला देश का पहला राज्य है. छत्तीसगढ़ में यह कानून 2012 में बना था.

सर्वप्रिय योजना यह योजना केन्द्र सरकार ने 21 जुलाई 2000 में प्रारंभ की थी जिसमें गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को बुनियादी जरूरतों की 11 वस्तुाएं उचित मूल्य की दुकानों से बेची जाती हैं. इसमें दाल, तेल, चाय, आयेाडीन नमक, डिटरजेंट, साबुन, कापियां, टूथपेस्ट आदि शामिल हैं.

उपार्जन मूल्य (Procurement Price) वह मूल्य है जिसपर सर्वजनिक वितरण प्रणाली के अंर्तगत वितरण के लिये वस्तुएं क्रय की जाती हैं.

जारी मूल्य (Issue Price) वह मूल्य है जिसपर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में वस्तुएं जनता को बेची जाती हैं.

बफर स्टाकअपातकाल में उपयोग के लिये खाद्यान्न का जो न्यूनतम स्टाक भारतीय खाद्य निगम व्दारा रखा जाता है उसे बफर स्टाक कहते हैं.

भंडारण वैज्ञानिक भंडारण के लिये केन्द्रीय भंडार गृह निगम काम करती है.

कृषि क्षेत्र की प्रमुख समस्याएं भारत में गेहूं, फल-सब्जी, दूध आदि का उत्पादन दुनिया में सबसे अधिक होता है, परन्तु यह कड़वी सचाई है कि इन चीज़ों में भी भारत की उत्पादकता बहुत कम है. चावल की उत्पादकता भारत में 2.4 टन/हे, चीन में 4.7 टन/हे और ब्राज़ील में 3.6 टन/हे है. चावल उत्पादकता में भारत का स्थान विश्व में 47 वां है. गेहूं की उत्पादकता भारत में 3.15 टन/हे और चीन में 4.9 टन/हे है. देश में कृषि आय में लगातार कमी आयी है. वर्ष 1950 में जी.डी.पी. का 50% कृषि से आता था जो 2015-16 में घटकर 17.5% रह गया है. दूसरी ओर देश की आधे से भी अधिक आबादी आजीविका के लिये खेती पर ही निर्भर हैं. मूलत: यही बात किसानों की गरीबी और कष्ट का कारण है.

कृषि क्षेत्र में कम उत्पादकता के प्रमुख कारण हैं

  1. कम रकबे के खेत – भारत में 86% किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम खेती है. गरीबी के कारण यह किसान पर्याप्त निवेश नहीं कर पाते.

  2. कृषि साख की अनुपलब्धतादेश में 40% से अधिक कृषि ऋण अनौपचारिक स्रोतों से लिये जाते हैं. ऐसे ऋण बहुत महंगे पड़ते हैं. खेती में निवेश के अलावा हारी-बीमारी, शादी-ब्याह, तीज-त्योहार आदि के लिये भी किसानों को ऋण लेना पड़ता है. ऋण के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या तक करने को बाध्य हो जाते हैं. ऋण माफी तात्कालिक उपाय हो सकता है, परंतु यदि बड़े नीतिगत सुधार नहीं हुए तो किसानों का पुन: ऋणग्रस्त होना निश्चित ही है.
  3. उन्नत प्रौद्योगिकी की अनुपलब्धता भारत के गरीब किसान खेतों की तैयारी, बुवाई, सिंचाई, खाद, फसल कटाई, मिंजाई, भंडारण, परिवहन और विक्रय आदि की उन्नत प्रौद्योगिकी का उपयोग नहीं कर पाते. गरीबी के कारण उन्नत प्रौद्योगिकी तक उनकी पहुंच नही हैं.
  4. बाज़ार तक किसानो की पहुंच न हो पाना छोटे और गरीब किसान न तो बड़े बाज़ारों तक अपना उत्पाद पहुंचा पाते हैं और न ही उनमें उत्पाद को लंबे समय तक रखने की आर्थिक क्षमता होती है. छोटे किसान फसल आने के समय उसे औने-पौने दामों पर बेचने के लिय मजबूर हैं. फसल को किसानो व्दारा सड़क पर फेंक देने गन्ना खेतों में ही जला देने जैसी घटनाएं इसलिये होती हें कि फसल बेचने में होने वाले खर्च की भरपाई भी कभी-कभी मुश्किल हो जाती है. सरकार 20 से अधिक फसलों के लिये समर्थन मूल्य घोषित करती है, परन्तु गेहूं और धान के अलावा अन्य फसलों को समर्थन मूल्य पर खरीदने का पूरा प्रबंध न होने के कारण किसानों को अपनी फसल कम दामों पर बेचना पड़ती है. गेहूं और धान की खरीदी भी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में ठीक प्रकार से नहीं हो पाती है. सरकार कमीशन आफ एग्रीकल्चरल कास्ट एंड प्राइसेज़ (सी.ए.सी.पी.) की अनुशंसा पर समर्थन मूल्य तय करती है परन्तु छोटे किसानो की लागत उससे कई बार बहुत अधिक होती है. समर्थन मूल्य मिल भी जाये तो भी उत्पादन कम होने के कारण कृषि आय से परिवार का पालन-पोषण करना कठिन होता है. केन्द्र सरकार की घोषित नीति बोनस के विरुध्द है जिसके कारण राज्य सरकारें यदि घोषित भी कर दें तो भी समय से बोनस नहीं दे पाती हैं.

किसानों की दशा सुधारने के लिये स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें -

  1. भू-सुधार - 1992 की एन.सी.एफ. रिपोर्ट के अनुसार आय के क्रम में रखने पर नीचे के 50% परिवारों के पास केवल 3% भूमि है जबकि ऊपर के 10% परिवारों के पास लगभग 54% भूमि है. 11.24% परिवार भूमिहीन हैं, और 60.63% परिवार सीमांत कृषक हैं. आयोग ने इस संबंध में अनेक सिफारिशें की हैं, जिनमें प्रमुख हैं – सीलिंग सरप्लस भूमि तथा वेस्टलैंड का वितरण किया जाये, कृषि भूमि के ओद्योगिक उपयोग पर पाबंदी लगे, किसानों को कामन प्रापर्टी में चराने के अधिकार मिलें, लेंड यूज़ एडवाइजरी सर्विस का गठन किया जाये, तथा कृषि भूमि के विक्रय को विनियमित किया जाये.
  2. सिंचाई- भारत में कुल कृषि क्षेत्र का लगभग 60% असिंचित क्षेत्र है जो पूरी तरह से वर्षा पर आधारित है. कुल कृषि उत्पादन का लगभग 45% असिंचित क्षेत्र से होता है. स्पष्ट ही है कि सिंचाई की कमी किसानों की प्रमुख समस्या है. इसके लिये यह आवश्यक है कि उपलब्ध जल का उचित वितरण हो और सूखे से निपटने के लिये जल संवर्धन की बड़ी योजना बनाई जाये। आने वाले समय में सिंचाई में बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता भी है।
  3. उत्पादकता इसे सुधारने के लिये पूरे देश में मिट्टी परीक्षण प्रयोगशालाओं का एक जाल बनाना आवश्यक है. किसानों को आधुनिक प्रोद्योगिकी में प्रशिक्षित करना भी आवश्यक है. इसके अतिरिक्त आने वाले समय में सरकार को कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश का तेजी से बढ़ाना होगा, तभी हमारी उत्पादकता बढ़ेगी।
  4. कृषि ऋण तथा बीमा अक्सर फसल खराब होने पर या उचित बाज़ार मूल्य न मिल पाने के कारण किसान पूर्व के ऋण नहीं चुका पाते और डिफाल्टर हो जाते हैं. बहुत बार घर में हारी-बीमारी के कारण भी किसानों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो जाती है कि वे ऋण लौटाने में असमर्थ हो जाते हैं. ऐसे में उन्हें आगे ऋण मिलना तो बंद हो ही जाता है, साथ ही जमीन-जायदाद बिकने की नौबत आ जाती है. किसानों के ऋणों में ब्याज़ दर कम करने, दैवीय विपत्ति आने पर स्वयमेव कर्जमाफी की व्यवस्था करने की आवश्यकता है. फसल बीमा जैसे उपाय भी किये जाने चाहिये. किसानों के लिये सुलभ और सस्ते इलाज की व्यवस्था और परिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वहन के लिये भी सुलभ तथा सस्ते कर्ज की व्यवस्था होनी चाहिये।
  5. खाद्य सुरक्षा फसल आने के समय गरीब किसानों को अपना लगभग सारा ही उत्पादन पुराने कर्ज को चुकाने और वर्तमान आवश्यकताओं की लिये बाज़ार में औने-पौने दामों में बेच देना पड़ता है. बाद में उन्हें अपने खाने के लिये वही खाद्यान्न ऊंचे दामों पर खरीदना पड़ता है. सूखे के समय तो अनेक क्षेत्रों में भुखमरी तक की नौबत आ जाती है.
  6. लघु और सीमान्त किसान प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते अधिक से अधिक फसलों के लिये न केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किये जांय बल्कि इस मूल्य पर खरीदने की ऐसी व्यवस्था की जाय कि फसल बेचने के लिये किसानों को अपने गांव से अधिक दूर न जाना पड़े. उन्हें तत्काल ही भुगतान भी मिल जाय. ऐसा कानून बनाया जाये कि गोदाम की रसीद के आधार पर किसान ऋण ले सकें जिससे किसान को अपनी फसल तत्काल न बेचनी पड़े और वे बाज़ार में दाम बढ़ने का इंतज़ार कर सकें. किसानों की सहकारी संस्थाओं को बढ़ावा देना भी आवश्यक है जिससे किसानों की प्रतिस्पर्घा करने की शक्ति बढ़ सके और वे अपने उत्पादन को सही मूल्य पर बेच सकें।

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