Preparation for Public Service Commission Competitive Examination

लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी

टेस्‍ट पेपर

बहु विकल्‍पीय प्रश्‍न हल करिये

शार्ट आंसर एवं लेख टाइप

वापस जायें / Back

छत्तीसगढ़ में आदिवासी विद्रोह

छत्तीसगढ़ में अनेक आदविासी विद्रोह हुए हें. इनमे प्रमुख हैं –

  1. हलबा विद्रोह (1774-77 ई)
  2. भोपालपट्टनम विद्रोह (1795 ई)
  3. परलकोट विद्रोह (1824-25 ई)
  4. तारापुर विद्रोह (1842-54 ई)
  5. मेरिया विद्रोह (1842-63 ई)
  6. महान मुक्ति संग्राम अथवा लिंगागिरि विद्रोह (1856-57 ई)
  7. कोई विद्रोह (1859 ई)
  8. मुरिया विद्रोह (1876 ई)
  9. महान भूमकाल (1910 ई)

हलबा विद्रोह

बस्तर के राजा दलपतसिंह की मृत्यु के बाद पटरानी के पुत्र अजमेरसिंह और बड़ी रानी के पुत्र दरियावसिंह के बीच उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष हुआ. अजमेरसिंह जीत गया और दरियावसिंह भाग कर जैपुर के राजा की शरण में गया. उसने भोसलों एवं अंग्रेज़ो से संधि कर ली एवं जगदलपुर पर आक्रमण कर दिया. मराठा सेना एवं अंग्रेज़ सेना से अजमेर सिंह हार गया और भाग गया. अजमेर सिंह लोकप्रिय था इसलिये हल्बा लोगों ने विद्रोह कर दिया. लंबे संघर्ष के बाद दरियाव सिंह हार गया परंतु विरोधि‍यों में शीघ्र ही फूट पड़ गई. दरियाव सिंह ने जैपुर के राजा से संधि की जिसके अनुसार वह बस्तर के पांच गढ़ों – कोटपाड़, चुरचुंडा, नोड़ागढ़, ओमरकोट और रायगढ़ा को देने के लिये राजी हो गया. उसने यह भी स्वीकार किया कि उसके राज्य पाने पर बस्तर मराठा राज का अंग हो जायेगा. इसके अतिरिक्त उनसे अंग्रेजों को वचन दिया कि राज पाने पर वह कंपनी सरकार के अधीन हो जायेगा. इसके बाद अंग्रेजों, मराठों एवं जैपुर की सेना ने आक्रमण किया और जगदलपुर का पतन हो गया. अजमेर सिंह मारा गया. 1776 में हल्बा लोगों का बर्बरतापूवर्क कत्लेआम किया गया. केवल एक ही हल्बा अपनी जान बचा सका. इस घटना को ही बस्तर में चालुक्य राज का पतन माना जाता है.

भोपालपट्टनम संघर्ष

अप्रेल 1795 ई में बस्तर के गोंडों ने कैप्टेन ब्लंट को इंद्रावती पार करके भोपालपट्टनम जाने से रोक दिया था. ब्लंट ने कुछ बंजारे दुभाषियों की मदद से गोंड लोगों से बातचीत करनी चाही परंन्तु गोंडों ने उसे रास्ता नहीं दिया. इसे ही भोपालपट्टनम संर्घष कहा जाता है.

परलकोट का विद्रोह

बस्त‍र राज में परलकोट उत्तर-पश्चिम में सबसे पुरानी ज़मीन्दारी थी. यहां के राजा अपने को सूर्यवंशी मानते थे. वे अबूझमाड़ि‍या थे. परलकोट कोटरी, निबरा एवं गुडरा नदियों के संगम पर स्थित है. परलकोट के आदिवासी मराठों एवं अंग्रेज़ों के शोषण से तंग आ चुके थे. उन्हें लग रहा था कि अबूझमाडि़या अपनी पहचान खो देंगे. गेंद सिंह के आह्वान पर अबूझमाडिया आदिवासी 24 दिसंबर 1824 को परलकोट में एकत्रित होने लगे. 4 जनवरी 1825 तक क्रातिकारी चांदा तक आ गए. सबसे पहले उन्होने मराठों को समान पहुंचाने वाले बंजारों को लूटा. इसके बाद वे मराठों एवं अंग्रेज़ों के विरुध्द घात लगाकर बैठ गए. आदिवासी धावड़ा वृक्ष की टहनियों को विद्रेाह के संकेत के रूप में सक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजते थे. पत्तों के सूखने के पहले क्रातिकारियों तक पहुचने की सूचना होती थी. कुछ ही समय में विद्रोह की चिंगारी पूरी गोंड अंचल में फेल गई. छत्तीसगढ़ के एगन्यू के कहने पर चांदा के पुलिस अधीक्षक कैप्टेन पेव के अधीन एक सेना परलकोट भेजी गई. विद्रोही महि‍लाओं को सामने रखकर छापामार युध्द‍ करते थे. वे तीरकमान से लड़ते थे. 10 जनवरी 1825 को गेंदसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया. गेंदसिह और उसके साथियों को महल के सामने फांसी दे दी गई.

तारापुर का विद्रोह

तारापुर परगना जगदलपुर से 80 किलोमीटर दक्षि‍ण-पश्चिम में है. राजा भूपालदेव का भाई दलगंजन सिंह यहा का प्रशासक था. बस्तर के राजा ने मराठों के कहने से यहां का कर बढ़ा दिया. आदिवासी पहले से ही मराठों को रसद आपूर्ति करने वाले बंजारों से नाराज़ थे और उन्हें लगता था कि मराठे उनकी जीवन शैली को समाप्त करने में लगे हैं. कर बढ़ने से और अधिक नाराज आदिवासियों ने दलगंजन सिंह और मांझियों के साथ मिलकर यहां के दीवान जगबंधु को हटाने के लिये विद्रोह कर दिया. दीवान जगबंधु को कैद कर दिया. राजा के हस्तक्षेप पर दीवान को छोड़ दिया गया. इससे आदिवासी और नाराज़ हो गए. दीवान ने नागपुर की सेना के सहयोग से आदिवासि‍यों को हरा दिया. दलगंजन सिंह को नागपुर जेल भेज दिया गया जहां उसे 6 माह रखा गया. नागपुर के रेज़ीडेंट मेजर विलियम्स ने आदि‍वासियों के असंतोष को समाप्त करने के लिये दीवान जगबंधु को पद से हटा दिया और नया कर भी वापस कर लिया.

मेरिया विद्रोह

दंतेवाड़ा की जनजातियों ने 1842 में विद्रोह किया. ग्रि‍ब्सिन ने लिखा है कि ब्रिटिश सरकार ने बस्तर में मेरिया या नरबलि को समाप्त करने के लिए राजा भूपालदेव को आदेश दिया. नरबलि रोकने के लिये नागपुर के भोसला राजा की एक सुरक्षा टुकड़ी दंतेवाड़ा के मंदिर में 22 वर्षों तक (1842 से 1863) रखी गई. आदिवासियों ने इसे अपनी परंपराओं के विरोध में बाहरी आक्रमण समझा ओर विद्रोह कर दिया. दीवान वामनराव के सुझाव पर रायपुर के तहसीलदार शेर खां को नरबलि पर नियंत्रण करने के लिये नियुक्त किया. आदिवासी इससे आक्रोशित हो गए. हिड़मा माझी के नेतृत्व में आदिवासियों ने मांग की कि अंग्रेज़ हट जायें. शेर खां ने आदिवासियों पर भयंकर अत्याचार किए. उनके घरों को जला दिया और महिलाओं से बलात्कार किया. अंतत: विद्रोह को दबा दिया गया.

महान मुक्तिसंग्राम

लिंगागिरि विद्रोह – अंग्रज़ो से नाराज़ आदिवासियों ने भेपालपट्टनम जंमीन्दारी के अंतर्गत लिंगागिरि तालुके के तालुकदार धुर्वाराम के नेतृत्व में विद्रोह किया. दोर्ला आदिवासियों ने गांवों को लूटा और बंजारों की माल से लदी गाड़ि‍यों पर कब्जा कर लिया. 3 मार्च 1856 को चिन्तलनार में धुर्वाराम और अन्य आदिवासियों के साथ अंग्रेज़ो का सुबह 8 बजे से दोपहर 3 बजे तक भयंकर युध्द हुआ. अंत में धुर्वाराम पकड़ा गया. उसकी पत्नी और बच्वो सहित 460 अदिवासी औरतों ओर बच्चों को कैद कर लिया गया. 5 मार्च 1856 को धुर्वाराम को फांसी दे दी गई और उसका तालुका भोपालपट्टनम के ज़मीन्दार को दे दिया गया.

कोई विद्रोह – वनरक्षा के लिये आंदोलन

बस्त‍र की दोरली भाषा में कोई का अर्थ है, वनों और पहाडों में रहने वाले लोग. 1859 में फोतकेल के ज़मीन्दार नागुला दोरला ने भेपालपट्टनम के ज़मीन्दार राम भेई और भेजी के ज़मीन्दार जुग्गाराजू के साथ मिलकर साल वृक्षों को काटे जाने के विरुध्द विद्रोह किया. आदविासियों ने वृक्ष न कटने देने की सूचना अंग्रेज़ों के हैदराबाद के ठेकेदारों को दे दी. अंग्रेज़ों ने नागुला के खिलाफ बंदूकधारी सिपाही भेजे. आदिवासियों ने अंग्रेज़ों की लकड़ी की टालें जला दीं और आरा चलाने वालों को मार डाला. उन्होने ''एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर'' का नारा दिया. अंग्रेज़ों और हैदराबाद के ठेकेदारों में मजबूरी में नागुला के साथ समझौता कर लिया. सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर ने अपनी हार मानकर बस्तर से लकड़ी काटने की ठेकेदारी प्रथा को ही समाप्त कर दिया.

मुरिया विद्रोह

1876 का मुरिया विद्रोह के प्रमुख कारण थे –

  1. ब्रिटिश सरकार के भूराजस्व संबंधी प्रयोग.
  2. अंग्रेज़ सरकार का राजा भैरमदेव के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप.
  3. दीवान गोपीनाथ और नौकरशाहों का आदिवासियों की पंरंपराओं में हस्तक्षेप.
  4. मुंशि‍यों व्दारा आदिवासियों का शोषण.
  5. बेगारी प्रथा
  6. मांझियों के अधिकारों में कमी

जनवरी 1864 में जगदलपुर से 6 मील दूर मारेंगा नामक स्थान पर आदिवासियों ने राजा भैरमदेव को प्रिंस आफ वेल्स को सलामी देने के लिये बम्बई जाने से रोका क्योंकि उन्हें डर था कि राजा की अनुपस्थिति में दीवान कपड़दार उनपर ज़ुल्म करेगा. दीवान ने सैनिकों को गोली चलाने का आदेश दिया. गोली से कुछ आदिवासी मारे गये. 18 लोगों को पकड़कर जगदलपुर भेज दिया गया. कुरंगपाल में 500 आदिवासियों ने मिलकर सभी 18 को छ़ुड़ा लिया और सैनिकों को पकड़ लिया. आदिवासियों ने आरा में झाड़ा सिरहा को अपना नेता बनाया और संघर्ष जारी रखा. स्थिति की गंभीरता से राजा भैरमदेव भी घबरा गया और उसने गोली चलवा दी. 6 मुरिया आदिवासी मारे गये और बाकी भाग गए. झाड़ा सिरहा ने पुन: लोगों को एकत्रित किया और आम के वृक्ष की डालियों को प्रतीक के रूप में भेजकर विद्रोह में शामिल होने का न्योता भेजा गया. 3 से 5 हजार आदिवासी एकत्रित हो गए. उन्होने महल को घेर लिया और संवाद सामग्री, जल तथा रसद को रोक लिया. राजा और दीवान घबराकर आत्मसमर्पण करने वाले थे. इस बीच दीवान ने एक महरा महिला की पेज की हांडी में एक पत्र मोम में लपेटकर मदद के लिये सिरोंचा के ब्रिटिश अधिकारियों को भेजा. मई 1876 में सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर ने जैपुर और विशाखापट्टनम की सेना के सहयोग से विद्रोहियो का दमन किया. ब्रिटिश सरकार ने राजा और कर्मचारियों को इस घटना के लिये जिम्मेदार ठहराया और सभी कायस्थ कर्मचारियों को बस्‍तर से बाहर कर दिया. असंतोष दूर करने के लिए 8 मार्च 1876 को जगदलपुर में मुरिया दरबार आयोजित किया गया. इसके बाद अनेक सुधार किए गए. नया 10 वर्षीय बंदोबस्त लागू किया गया. पहाड़ी क्षेत्र मे पेछा, मैदानी क्षेत्र में गायला, खालसा क्षेत्र में दीवान, नेगा और थानेदार को भूराजस्व की वसूली का अधिकार दिया गया. दीवान गोपीनाथ को कैद करके सिरोंचा भेज दिया गया. इस प्रकार यह विद्रोह पूरी तरह सफल हुआ.

1910 का विद्रोह – भूमकाल

भूमकाल का अर्थ है भूकम्प या उलट-पुलट. इस विदोह का नारा था – बस्तर बस्तरवासियों के लिये. आदिवासी बस्तर में मुरिया राज स्थापित करना चाहते थे. इस विद्रोह के कारण थे –

  1. अंग्रेज़ों का राजा रुद्रप्रताप को सत्ता न सौंपना.
  2. राजवंश से दीवान न बनाना.
  3. स्थानीय प्रशासन व्दारा शोषण.
  4. लाल कालेन्द्र सिंह और राजमाता सुवर्णकुंवर देवी की उपेक्षा.
  5. बस्तर के वनों को सुरक्षित वन घोषित करना.
  6. वन उपज का उचित मूल्य न मिलना.
  7. लगान में वृध्दि और ठेकेदारी प्रथा को जारी रखना.
  8. घरेलू मदिरा पर पाबंदी.
  9. कम मजदूरी.
  10. बाहरी लोगों व्दारा आदिवासियों का शोषण.
  11. बेगारी प्रथा.
  12. पुलिस के अत्याचार.
  13. सरकारी अधिकारियो व्दारा मुफ्त में मुर्गा, देसी घी और वनोपज प्राप्त करना.
  14. आदिवासियों को गुलाम समझना.
  15. इसाई मिशनरियों व्दारा आदिवासियों को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य करना.

अक्टूबर 1909 के दशहरे के दिन राजमाता स्वर्णकुंवर देवी ने लाल कालेन्द्र सिंह की उपस्थिति में आदिवासियों को ताड़ोकी में अंग्रेज़ों के विरुध्द सशस्त्र विद्रोह के लिए प्रेरित किया. लाल कालेन्द्र सिंह ने नेतानार ग्राम के गुंडाधूर को क्रांति का नेता बनाया और प्रत्येक परगने से एक बहादुर वयक्ति को विद्रोह का संचालन करने के लिए मनोनीत किया. जनवरी 1910 में पुन: ताड़ोकी में गुप्त सम्मेलन हुए. 1 फरवरी 1910 को पूरे बस्तर में क्रांति की शुरुवात हुई. प्रत्येक गांव में हर परिवार के एक सदस्य को इसमें शामिल करने के लिए लाल मिर्च, मिट्टी के ढ़ेले, धनुष बाण भाले और आम की डालियां प्रतीक के रूप में भेजे गए. 2 फरवरी को विद्रोहियों ने पूसपाल बाज़ार में लूट की. 4 फरवरी को कूकानार के बाज़ार में बुंटू और सोमनाथ नामक दो विद्रोहियों ने एक व्यापारी की हत्या कर दी. 5 फरवरी को करंजी बाज़ार लूटा गया. 7 फरवरी को गीदम में सभा करके मुरिया राज की घोषणा हुई. बारसुर, कोण्टार, कुटरू, कुआंकोण्डा, गदेड़, भोपालपट्टनम, जगरगुण्डा, उसूर, छोटे डोंगर आदि में आक्रमण हुए. 16 फरवरी को इंद्रावती के तट पर खड़गघाट में अंग्रेज़ों और विद्रोहियो की बीच भीषण युध्द हुआ जिसमें विदोहियों की हार हुई. 24 फरवरी को गंगामुण्डा में भी विद्रोही हार गए. 25 फरवरी को डाफनगर में गुंडाधूर के नेतृत्व में संर्घष हुआ. अबूझमाढ़ में आयतू महरा ने अंग्रेज़ों से संघर्ष किया. अंग्रेज़ों के कमांडर गेयर ने पंजाबी सेना के बल पर विद्रोहि‍यों का दमन किया. 6 मार्च 1910 से दमन बढ़ गया. राजमाता स्वर्णकुंवर देवी और लाल कालेन्द्र सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया. आदिवासियों के शस्त्र छीन लिये गये और हज़ारों को बेंत लगाने की सज़ा दी गई. अंतत: विदोह को दबा दिया गया. विद्रोह के बाद दीवान बैजनाथ पंडा को हटाकर जेम्स को दीवान बनाया गया. इसके बाद अंग्रेज़ों ने आदिवासियों को सम्मान देकर उनसे जुड़ने का प्रयास भी किया.

Visitor No. : 7664185
Site Developed and Hosted by Alok Shukla