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संविधान के अंतर्गत मौलिक अधिकार भाग - 3
अनुच्छेद 20 से 21क
अनुच्छेद 20. अपराध के लिए दोषसिद्धि के संबंध मे संरक्षण–
(1) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप मे आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी.
(2) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा.
(3) किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा.
अनुच्छेद 20 की व्याख्या
यह अनुच्छेद आरोपी व्यक्ति को मनमाने और अत्यधिक दंड से सुरक्षा प्रदान करता है. यह सुरक्षा नागरिक और गैर नागरिक दोनो को ही मिली हुई है और कंपनी जैसे न्यायिक व्यक्तियों को भी मिली हुई है.
इसमें तीन महत्वपूर्ण प्रावधान हैं:
- दंड देने के लिये कार्योत्तर कानून नहीं हो सकता. इसके 2 भाग हैं -
(क) किसी व्यक्ति को ऐसे कानून के अंर्तगत दोषी नहीं ठहराया जा सकता जो उप कथित अपराध के किये जाने के समय लागू नहीं था.
(ख) किसी व्यक्ति कथित अपराध के किये जाने के समय लागू कानून द्वारा निर्धारित दंड से अधिक दंड नहीं दिया जा सकता.
विधायिका को एक्स-पोस्ट-फैक्टो कानून बनाने का अधिकार है. यदि ऐसे एक्स-पोस्ट-फैक्टो कानून अतीत में किए गए अपराधों को प्रभावित करते हैं तो अनुच्छेद 20(1) इस प्रकार के कानून से अभियुक्तों की रक्षा करता है. अपराधों पर अपराध करने के समय का कानून ही लागू होता है. भविष्य में कानून में संशोधन करने पर संशोधित कानून पूर्व में किये गये अपराधों पर लागू नहीं होगा.
रतनलाल बनाम पंजाब राज्य के प्रकरण में सितंबर 2020 में रेप किया गया था. उस समय रेप की सजा 7 साल की कैद थी. बाद के, संशोधन से सज़ा को 10 साल की कैद तक बढ़ा दिया गया. इस मामले अपराधी को 10 साल नहीं बल्कि 7 साल की सजा काटनी होगी. परन्तु यदि संशोधन में सजा को कम करके 5 साल कर दिया गया होता तो आपराधी को 7 साल नहीं बल्कि 5 ही साल की सजा काटनी होती. इसका मतलब है सजा कम करने वाला संशोधन लागू होगा.
अनुच्छेद कार्योत्तर आपराधिक कानून के तहत केवल दोषसिद्धि या सजा को प्रतिबंधित करता है ट्रायल को नहीं. इस प्रावधान के तहत निवारक निरोध के मामले में सुरक्षा नहीं मिलती है.
अनुच्छेद 20 की सुरक्षा केवल आपराधिक कानूनों के मामले में उपलब्ध है. सिविल कानूनों एवं कर कानूनों में यह सुरक्षा उपलब्ध नहीं है.
- अनुच्छेद 20(2): कोई दोहरा दंड नहीं
किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार अभियोग नहीं चलाया जा सकता और दंडित नहीं किया जा सकता. परन्तु दोहरे दंड से सुरक्षा केवल न्यायालय या न्यायिक न्यायाधिकरण के समक्ष कार्यवाही में उपलब्ध है, अन्य कार्यवाहियों में नहीं.
थॉमस दास बनाम पंजाब राज्य में न्यायालय ने माना है कि अनुच्छेद 20(2) के तहत सुरक्षा लेने के लिए 3 आवश्यकताओं को पूरा करने की आवश्यकता है:
- अपराध का आरोपी होना चाहिये.
- अपराध के लिए उस पर मुकदमा चलाया गया हो.
- अभियोजन का परिणाम सजा था.
यदि एक बार किसी अपराध के लिए सजा दी गई है, फिर उसे उसी अपराध के लिए दूसरी बार दंडित नहीं किया जा सकता.
एस.ए. वेकटरामन बनाम भारत संघ में भारतीय सिविल सेवा के एक सदस्य ने आपराधिक विचारण के विरुद यााचिका दायर की थी. सर्वोच्च नयायालय ने कहा कि विभागीय जांच में आरोप सिध्द पाये जाने पर आपराधिक प्रकरण लगाया जाना दोहरे अभियोजन में नही आता है.
मोहनलाल बनाम राजस्थान राज्य AIR 2015 SC 2098 में न्यायालय ने कहा है कि अनुच्छेद 20 पोस्ट फैक्टों कानून के अंतर्गत दोषसिध्दि एवं सज़ा का प्रतिषेध करता है परन्तु ट्रायल चलाने का नहीं. इसी प्रकार ट्रायल की प्रक्रिया में पोस्ट फक्टो परविर्तन होने पर नई प्रक्रिया से ट्रायल पर रोक नही है.
मारू राम एवं अन्य बनाम भारत संघ एक अन्य 1980 AIR 2147, में न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 20 (1) बाद में बनाये गये कानून के अंतर्गत अधिक सज़ा के प्रावधान से सुरक्षा देता है. परन्तु रतन लाल बनाम पंजाब राज्य में सर्वोच्च न्यायालय ने किसी अपराध की सज़ा करने वाले वाले पोस्ट फैक्टो कानून को लागे करने की अनुमति दी.,/p>
एक ही अपराध के लिये दो बार अभियोजन से सुरक्षा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 300 (1) में भी प्रावधानित की गई है.
- अनुच्छेद 20(3): कोई आत्म-अपराध नहीं
किसी भी अपराध के आरोपी को अपने खिलाफ गवाह बनने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा.
यह प्रावधान आरोपी को पुलिस द्वारा अत्याचार से अपराध को बलपूर्वक स्वीकार करने से बचाने के लिए जोड़ा गया है. यही बात सीआरपीसी की धारा 161 में भी दी गई है. भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25, 26 और 27 में कहा गया है कि आरोपी द्वारा दिए गए ऐसे बयान को स्वीकार नहीं किया जायेगा जो खुद उसको नुकसान पहुंचाता है. लेकिन आरोपी सबूत के साथ अपराध स्वीकार करता हैं तो यह साक्ष्य में स्वीकार्य है. आत्म-दोष के खिलाफ सुरक्षा मौखिक साक्ष्य और दस्तावेजी साक्ष्य दोनों के लिये है.
एम. पी. शर्मा बनाम सतीश चंद्रा मामले में यह देखा गया कि संबंधित व्यक्ति चाहे आरोपी हो या महज संदिग्ध, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20(3) के दायरे में आने वाली सुरक्षा उसे मिलेगी. परन्तु यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से जानकारी का खुलासा करने का निर्णय लेता है तो अनुच्छेद 20(3) के तहत उसे रोक नहीं जायेगा.
नंदिनी सत्पथी बनाम पीएल दानी के मामले में, न्यायालय ने कह कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 161 पुलिस को जांच के दौरान आरोपी से पूछताछ करने का अधिकार देती है परन्तु किसी महिला को पुलिस स्टेशन में गवाही के लिये बुलाना धारा 160(1) का उल्लंघन है. धारा 161(2) और 20(3) यह प्रावधान करती है कि गवाह को जांच के दौरान स्वयं अपने विरुध्द सवालों के जवाब देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.
अनुच्छेद 21. प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण
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किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं .
अनुच्छेद 21 की व्याख्या
प्राण और दैहिक स्वतंत्रता की बात कोई नई नहीं है. इसके बीज 1215 में अंग्रेज शासक जान के मैग्ना कार्टा में मिलते हैं. अमरीका के संविधान में भी बिल ऑफ राइट्स है. अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभैमिक घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में की गई. 1950 में मानव अधिकारों के यूरोपीय कन्वेन्शन में भी यह शामिल है. विशाखा विरुध्द राजस्थान राज्य 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अंतराष्ट्रीय कनवेन्शन्स को मौलिक अधिकारों की व्याख्या के लिये पढ़ा जा सकता है.
यद्यपि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार विदेशियों को भी मिला हुआ है परन्तु सर्वोच्च न्यायाल ने सर्बानन्द सोनोवाल विरुध्द भारत संघ 2005 में निर्णय दिया है कि यह अनुच्छेद विदेशियों को भारत में बसने का अधिकार नहीं देता और भारत सरकार की विदेशियों को निर्वसित करने की शक्ति कम नही करता है.
प्रिवेंटिव डिटेंशन के संबंध में ए.के. गोपालन विरुध्द मद्रास राज्य, 1950 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अनुच्छेद 19 के अंर्तगत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का तात्पर्य स्वतंत्र रूप से घूमना नही है, और अनुच्छेद 21 में निवारक निरोध का प्रतिषेध नहीं है.
सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न प्रकरणों में अनुच्छेद 21 की व्याख्या करके इसके दायरे को बहुत बढ़ा दिया है. न्यायालय ने व्यवख्या की है कि जीवन के अधिकार में गरिमापूर्ण जीवन लीने का अधिकार शामिल है.
- पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिर्बटीज़ बनाम भारत संघ एवं अन्य, 2002 में सर्वोच्च न्यायालय में माना है कि भोजन का अधिकार भी अनुच्छेद 21 में प्राण के अधिकार में शामिल है.
- सुचिता श्रीवास्तव विरुध्द चंडीगढ़ प्रशासन, 2010 में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 का दायरा बढ़ाते हुये कहा कि गर्भपात कराने के संबंध में चॉइस महिलाओं की दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार में शामिल है.
- सुब्रमणियम स्वामी विरुध्द भारत संघ कानून मंत्रालय एवं अन्य, 2016 में सर्वोच्च नयायालय ने माना है कि प्रतिष्ठा का अधिकार भी अनुच्छेद 21 का अंग है.
- चंद्रा कुमारी विरुध्द पुलिस कमिश्नर हैदराबाद ,1998 में सार्वेच्च नयायालय ने कहा कि सौदर्य प्रतियोगिताएं अपने आप में आपत्तिजनक नही हैं, परन्तु यदि उनमें महिलाओं का अशोभनीय चित्रण या महिलाओं का अपमान करने वाली कोई चीज़ है, तो यह महिला अश्लील प्रतिनिधित्व अधिनियम 1986 के साथ-साथ संविधान के अनुच्छेद 21 का भी उल्लंघन होगा.
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- सतवंत सिंह साहनी विरुध्द डी. रामनाथन, 1967 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि विदेश यात्रा और पासपोर्ट प्राप्त करना अनुच्छेद 21 के अंतर्गत अधिकार है.
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- मीरा निरेशवालिया विरुध्द तामिल नाडु राज्य, 1991 के तथ्य यह थे कि, जब एक महिला असामजिक तत्वों व्दारा अपने घर को नुकसान पहुंचाने की शिकायत कर रही थी, तब पुलिस ने उसे अवैध तरीके से डिटेन किया और भोजन तक नहीं दिया. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना और उसे मुआवज़ा देने का ओदश दिया.
- सुनील बत्रा विरुध्द दिल्ली प्रशासन एवं अन्य, 1978 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कारागार अधिनियम 1894 जेल अधिकारियों को कैदियों को सज़ा देने, उनके साथ भेदभाव करने उन्हें यातना देने का अधिकार नहीं देता है और ऐसा करना अनुच्छेद 21 में दी गई दैहिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है.
- सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्ति के निजता के अधिकार की व्याख्या अनेक प्रकरणों में की है. पी.यू.सी.एल. विरुध्द भारत संघ, 1997 में न्यायालय ने कहा कि टेलीफोन टैपिंग से एकत्र जानकारी केवल वरिष्ठ अधिकारियों व्दारा आवश्यक होने पर देखी जा सकती है और जब उसकी आवश्यकता न रह जाये तब उसे तत्काल नष्ट कर देना चाहिये और 6 माह के भीतर तो निश्चित की नष्ट कर देना चाहिये.
- न्यायमूर्ति पुट्टास्वामी सेवानिवृत्त विरुध्द भारत संघ, 2015 में न्यायालय ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना है. इस प्रकरण में भारत सरकार की आधार कार्ड योजना को चुनौती दी गई थी. 9 जजों की संविधान पीठ ने हालाकि आधार कार्ड योजना को
वैध माना परन्तु आधार अधिनियम के अनेक प्रावधानों को समाप्त कर दिया.
- सर्वोच्च न्यायालय ने पंडित परमानंद कटारा विरुध्द भारत संघ 1989 में चिकित्सा के अधिकार को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार के रूप में मान्यता दी है और कहा हे कि दुर्घटना के प्रकरणों में कोई अस्पताल या चिकित्सक किसी मरीज़ के इलाज से इंकार नही कर सकता.
- क्या जीवन के अधिकार में स्वयं का जीवन समाप्त करने का अधिकार शामिल है? पी. रथिनाम विरुध्द भारत संघ 1994 में सर्वोच्च न्यायालय की 2 जजों की पीठ ने इच्छा मृत्यु को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार में शामिल माना और भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अंतर्गत आत्महत्या के लिये दंड को असंवैधानिक करार दिया. परन्तु श्रीमती ग्यान कौर विरुध्द पंजाब राज्य 1996 में न्यायालय ने अपने इस फैसले को पलट दिया और कहा कि इच्छामृत्यु के संबंध में केवल संसद ही कानून बना सकती है.
- अनेक प्रकरणों में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार के अंतर्गत मानयता दी है. सुभाष कुमार विरुध्द बिहार राज्य, 1991 में न्यायालय ने राज्य के प्रदूषण निवारण मंडल को बोकारो में स्टील फैक्ट्रियों व्दारा नदी में कचरा डालने और प्रदूषण रोकने के लिये उचित कदम उठाने के निर्देश दिये. रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र विरुध्द उत्तर प्रदेश राज्य, 1985 में न्यायालय ने देहरादून घाटी में अनेक चूना पत्थर खदानों को बंद करने का आदेश दिया क्योंकि वे पार्यवरण को नुकसान पहुंचा रही थीं.
- एम.सी. मेहता एवं अन्य विरुध्द भारत संघ 1987 में सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीराम फर्टिलाइज़र की फैक्ट्री से लीकेज के कारण हुये नुकसान के लिये पीड़ितो को 20 लाख रुपये का मुआवज़ा देने के आदेश दिये. इसी प्रकार एम.सी. मेहता विरुध्द भारत संघ, 2004 में न्यायालय ने अरावली पर्वत श्रंखला में खनन पर रोक तो लगाई ही, साथ ही पर्यावरण के पुर्न उध्दार की मॉनीटरिंग के लिये एक समिति भी बनाई.
- री. ध्वनि प्रदूषण प्रकरण 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने पटाखों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण को अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकार का उल्लंघन माना.
- सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत कैदियों को भी अनेक अधिकार प्रदान किये है. इनमें नि:शुल्क विधिक सहायता का अधिकार, त्वरित सुनवाई का अधिकार, निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार, आदि शामिल हैं.
- अनुच्छेद 21 और मृत्युदंड - सर्वोच्च न्यायालय ने बचन सिंह विरुध्द पंजाब राज्य 1980 में मृत्युदंड को वैध माना है, और कहा है कि यह अनुच्छेद 14, 19 एवं 21 का उल्लंघन नही है. परन्तु न्यायालय ने कहा है कि मृत्युदंड केवल rarest of the rare प्रकरणो में ही दिया जाना चाहिये न कि आजीवन करावास के विकल्प के रूप में. वहीं आटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया विरुध्द लछमा देवी एवं अन्य में न्यायालय ने सार्वजनिक फांसी को असंवैधानिक और अनुच्छेद 21 का घोर उल्लंघन माना. सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड में असामान्य देरी को यातना माना है और उसे मृत्युदंड माफ करने के लिये पर्याप्त आधार भी माना है.
- पुलिस की ज़्यादती और अभिरक्षा में मृत्यु को सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21 का उल्लंघन माना है. श्रीमती नीलबती बेहराफ उर्फ ललिता बेहरा विरुध्द उड़ीसा राज्य, में याचिकाकर्ता के पुत्र को पुलिस ले गई थी. बाद में उसकी लाश रेल लाइन के किनारे मिली. आरोप था कि उसकी मृत्यु पुलिस की अभिरक्षा में हुई थी. सर्वोच्च न्यायालय में इस प्रकरण में मुआवज़ा देने का आदेश दिया.
- दिल्ली डोमेस्टिक वर्किंग वुमेन फोरम विरुध्द भारत संघ, 1995 में सर्वोच्च न्यायालय ने रेप पीड़ितों के अधिकारों की व्याख्या की है. न्यायालय ने कहा है कि -
- शिकायत के लिए पुलिस स्टेशन पहुंचने पर पीड़ितों को कानूनी प्रतिनिधित्व उपलब्ध कराया जाये और उन्हें इस अधिकार के बारे में सूचित करना पुलिस का कर्तव्य है.
- जहां तक आवश्यक हो पीड़ितों की गुमनामी बनाए रखी जाए.
- अपराधी को दोषी ठहराए जाने से पहले ही पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए आपराधिक चोट मुआवजा बोर्ड की स्थापना की जाए.
- विशाखा एवं अन्य विरुध्द राजस्थान राज्य एवं अन्य, 1997 में न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार का उल्ल्ंघन माना है, और इसे रोकने हेतु नियोजकों के लिये विस्त्रत गाइडलाइन जारी की हैं. ये गाइडलाइन हैं -
- यौन उत्पीड़न रोकना नियोक्ताओं और जिम्मेदार लोगों का कर्तव्य है.
- महिलाओं के लिए सुरक्षित और उचित कार्य वातावरण प्रदान करना नियोक्ताओं का कर्तव्य है.
- शिकायतों के निवारण के लिए एक महिला की अध्यक्षता में शिकायत समिति और शिकायत निवारण तंत्र की स्थापना की जाये.
- कदाचार के विरुद्ध की जाने वाली अनुशासनात्मक कार्यवाही के नियम बनाये जायें.
- कामकाजी महिलाओं के अधिकारों के संबंध में जागरूकता का प्रसार किया जाये.
- डिप्टी इंस्पैक्टर जनरल ऑफ पुलिस विरुध्द एस. सामुथिरम एवं अन्य 2012 में सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वाजनिक स्थानों पर महिलाओं से छेड़-छाड़ को अनुच्छेद 21 के तहत गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार का उल्लंघन माना है और इसे रोकने के लिये गाइडलाइन जारी की हैं -
- सभी सरकारें सार्वजनिक स्थानों पर सादे कपड़े में महिला पुलिस अधिकारियों की तैनाती करें.
- महत्वपूर्ण स्थानों पर सीसीटीवी कैमरों की स्थापना की जाये.
- सार्वजनिक संस्थानों और सार्वजनिक सेवा वाहनों के प्रभारी व्यक्तियों को आदेश दिया गया है कि छेड़छाड़ की किसी भी हरकत की सूचना तुरंत पुलिस को दें.
- सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में महिला हेल्पलाइन की स्थापना.
अनुच्छेद 21 के संबंध में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि राष्ट्रीय आपातकाल में जब अन्य मौलिक अधिकार निलंबित हो जाते हें उस समय में अनुच्छेद 20 एवं अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार निलंबित नहीं होता है. इसका प्रावधान संविधान के 44वें संशोधन से 1978 में अनुच्छेद 359 में संशोधन करके किया गया है. इससे यह सुनिश्चित होता है कि आपातकाल के समय भी आम लागों को उनके महत्वपूर्ण अधिकार मिले रहते हैं, और जैसा कि मेनका गांधी प्रकरण में नयायालय ने निर्णय दिया है इस किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन का हनन विधि व्दारा स्थापित प्रक्रिया का पालन किये बिना नही किया जा सकता. साथ ही यह प्रक्रिया मनमानी और अनुचित भी नही हो सकती.
[21क. शिक्षा का अधिकार –
राज्य, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का ऐसी रीति मे, जो राज्य विधि द्वारा, अवधारित करे, उपबंध करेगा.]
शिक्षा का अधिकार संविधान के 86वे संशोधन व्दारा 2002 में अनुच्छेद 21क के रूप में मौलिक अधिकारों में जोड़ा गया.
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माहिनी जैन विरुध्द कर्नाटका राज्य एवं अन्य 1992 में न्यायालय ने कैपिटेशन फीस लेने को प्रतिबंधित किया और कहा कि यदि संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 44 को मौलक अधिकार के रूप में नही पढ़ा जाता है तो यह गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार का उल्लंघन होगा.
उन्नीकृष्णन जे.पी. एवं अन्य विरुध्द आंध्रप्रदेश राज्य में न्यायालय ने कहा कि नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार 14 वर्ष की आयु तक ही सीमित है. उसके बाद इसे जारी रखना राज्य एवं संबंधित की वित्तीय स्थिति पर निर्भर करेगा.
यूट्यूब की चैनल NewsClickin पर Creative Commons Attribution license (reuse allowed) के अंतर्गत उपलब्ध यह वीडियो देखिये जिसमे पूर्व केन्द्रीय सूचना आयुक्त और महिन्द्रा विश्वविद्यालय हैदराबाद के स्कूल ऑफ लॉ के डीन डॉ. मादाभूषी श्रीधर आर्यायलू अनुच्छेद 21 के संबंध में बता रहे हैं.