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छत्तीसगढ़ के महान ऐतिहासिक व्यक्तित्व

संत गुरु घासीदास

गुरु घासीदास का जन्म 18 दिसम्बर सन् 1756 ई. को बलौदाबाजार जिले के गिरौदपुरी में हुआ था. उनके पिताजी का नाम महंगूदास तथा माताजी का नाम अमरौतिन था. उनका विवाह सिरपुर निवासी अंजोरी दास की कन्या सफुरा से हुआ था. शांति की खोज में अपने भाई के साथ जगन्नाथपुरी जाते हुए वे अचानक सारंगढ़ से वापस लौट आए. उन्हें बोध हुआ कि मन की शांति मठों और मंदिरों में भटकने से नहीं मिलेगी बल्कि इसके लिए मन के भीतर ही उपाय ढूँढ़ाना होगा. उन्होने गिरौदपुरी के समीप छातापहाड़ पर औंरा-धौंरा वृक्ष के नीचे तपस्या कर सतनाम को आत्मसात किया. इसके बाद भंडारपुरी आकर गुरु घासीदास जी सतनाम का उपदेश देने लगे. उनके सात वचन सतनाम पंथ के सप्त-सिध्दांत हैं - सतनाम पर विश्वास, मूर्तिपूजा का निषेध, जाति एवं वर्णभेद की समाप्ति, हिंसा का विरोध, व्यसन से मुक्ति, पर-स्त्रीगमन की वर्जना और दोपहर में खेत न जोतना. उनका मानना था कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए हमें सामाजिक बुराईयों को दूर रहकर सत्य, अहिंसा और परोपकार जैसे उच्च नैतिक आदर्शों का पालन करना चाहिए. उन्होने पूरे छत्तीसगढ़ का दौरा कर सतनाम का प्रचार-प्रसार किया. उन्होंने सदैव दलित शोषित एवं पीड़ित लोगों का साथ दिया और उनका उत्थान किया. रायपुर गजेटियर के अनुसार सन् 1820 से 1830 ई. के बीच छत्तीसगढ़ की लगभग 12% आबादी गुरु घासीदास की अनुयायी हो गई थी.

उन्होत=ने मानव-मानव के भेद को समाप्त किया. गिरौदपुरी में उनके पंथ की गुरु गद्दी स्थापित हुई, जहाँ प्रत्येक वर्ष दिसम्बर माह में उनके जन्म दिवस के अवसर पर अनुयायियों का वृहत मेला लगता है. उन्होंने प्रतीक चिह्न श्वेत धर्मध्वजा तथा जैतखाम की स्थापना को अनिवार्य बताया. गुरु घासीदास की जन्मभूमि गिरौदपुरी में कुतुब मीनार से भी लगभग पाँच मीटर ऊँचे, सतहत्तर मीटर के जैतखाम का निर्माण किया गया है. जैतखाम सत्य और सात्विक आचरण का प्रतीक माना जाता है. उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए 1983 ई. में बिलासपुर में गुरु घासीदास विश्वविद्यालय की स्थापना की थी. सन् 2009 ई. में इसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया है. छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक चेतना और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में गुरु घासीदास सम्मान स्थापित किया है.

वीर नारायण सिंह

छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद वीर नारायण सिंह का जन्म सन् 1795 ई. में बलौदा बाजार जिले में स्थित सोनाखान के जमींदार परिवार में हुआ था. उनके पिता श्री रामराय अपने स्वाभिमान के कारण ब्रिटिश शासन से कई बार टक्कर ले चुके थे. कैप्टन मैक्सन ने उन्हे गिरफ्तार भी किया था परन्तु बाद में उन्हे छोड़ दिया गया और उनकी ज़मींदारी भी वापस कर दी गई. नारायण सिंह बचपन से ही निर्भीक एवं पराक्रमी थे. वे तीरंदाजी, तलवारबाजी और घुड़सवारी में निपुण थे. बीहड़ जंगलों में हिंसक जानवरों के मध्य नारायण सिंह निर्भीकतापूर्वक घूमते थे। उन्होंने धार्मिक ग्रंथों एवं नीति संबंधी ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की. रामायण, महाभारत और गीता में उनकी विशेष रुचि थी. वे अत्याचार, अन्याय एवं शोषण के घोर विरोधी थे. सन् 1830 ई. में रामराय जी की मृत्यु के पश्चात नारायण सिंह जमींदार बने. वे बाँस और मिट्टी से बने साधारण मकान में रहते थे. रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट उनके विरोधी थे. सन् 1856 में सोनाखान भीषण सूखे की चपेट में आ गया. लोग भूख से त्रस्‍त थे. नारायण सिंह ने कसडोल के व्यापारी माखन से आग्रह किया कि वह गरीब किसानों को खाने के लिए अन्न और बोने के लिए बीज अपने भंडार से दे दे. व्यापारी माखन ने साफ इंकार कर दिया. नारायण सिंह ने माखन के भंडार के ताले तुड़वा दिए और उसमें से उतना ही अनाज निकाला जो गरीब किसानों के लिए आवश्यक था. नारायण सिंह ने इस घटना की सूचना भी डिप्टी कमिश्नर को लिख कर दे दी थी. माखन की शिकायत पर कैप्टन इलियट ने नारायण सिंह की गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया. दिनांक 24 अक्टूबर सन् 1856 ई. को नारायण सिंह को चोरी और डकैती के जुर्म में संबलपुर में गिरफ्तार कर लिया गया. छोटे से मुकदमें की औपचारिकता निभाकर उन्हें रायपुर जेल में डाल दिया गया. दिनांक 28 अगस्त सन् 1857 ई. को नारायण सिंह अपने कुछ साथियों के साथ जेल से भाग निकले और सोनाखान पहुँच कर उन्होंने लगभग 500 विश्वस्त बंदुकधारियों की सेना बनाई. रायपुर के डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें पकड़वाने के लिए नगद एक हजार रुपए का ईनाम घोषित किया. सोनाखान के पास कैप्टेन स्मिथ की सेना से भीषण संघर्ष के बाद अंग्रेजों ने नारायण सिंह को 21 दिसम्बर सन् 1857 ई. को कूटनीति से कैद कर लिया. अंग्रेजों ने सोनाखान गांव को जला दिया. अंग्रेज सरकार ने विद्रोह करने तथा युध्द छेड़ने के अपराध में उन्हें 10 दिसम्बर सन् 1857 ई. को फाँसी की सज़ा दी. दिनांक 18 जनवरी सन् 1858 को इस घटना से क्रुध्द होकर रायपुर छावनी की थर्ड रेगुलर रेजीमेण्ट के मैग्जीन लश्कर ठा. हनुमान सिंह के नेतृत्व में सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुध्द विद्रोह किया. छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में आदिवासी एवं पिछड़ा वर्ग में उत्थान के क्षेत्र में एक राज्य स्तरीय वीर नारायण सिंह सम्मान स्थापित किया है.

सुरेंद्र साय

सुरेन्द्र साय का जन्म संबलपुर के राजवंश में खिंडा ग्राम में 23 जनवरी सन् 1809 ई. में हुआ था. संबलपुर के नरेश महाराज साय का देहांत निःसंतान रहते हुए सन् 1827 ई. में हो गया. अंग्रेजों ने उनकी विधवा रानी मोहन कुमारी को गद्दी पर बैठा दिया. रानी मोहन कुमारी ने आदिवासियों के सारे परंपरागत अधिकार और सुविधाएँ छीन लीं जिससे जनता में असंतोष बढ़ने लगा. अंग्रेजों ने रानी मोहनकुमारी को अपदस्थ कर उसके दूर के रिश्तेदार नारायण सिंह को राजगद्दी पर बिठा दिया जबकि राजगद्दी पर सुरेंद्र साय का अधिकार था. नारायण सिंह का प्रशासन अत्यंत निर्बल और भ्रष्ट था. सुरेंद्र साय ने उसका खुला विद्रोह कर दिया. एक रात नारायण सिंह ने अचानक हमला करके सुरेन्द्र साय के सहयोगी लखनपुर के जमींदार बलभद्र देव की हत्या कर दी. रामपुर के ज़मींदार ने सुरेन्द्र साय के गांव को लूट लिया. जवाब में सुरेंद्र साय ने रामपुर पर हमला कर उसके किले को ध्वस्त कर दिया. रामपुर का जमींदार अपनी जान बचाकर भाग खड़ा हुआ. अंग्रेजों ने सुरेंद्र साय को उनके भाई उदंत साय और काका बलाराम साय के साथ गिरफ्तार कर लिया और उन पर बिना कोई मुकदमा चलाए आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए हजारीबाग जेल भेज दिया. दिनांक 30 जुलाई सन् 1857 ई. को हजारीबाग में बर्दवान पल्टन ने बगावत कर जेल की दीवारें तोड़ दीं. सुरेंद्र साय अपने भाईयों सहित संबलपुर की ओर भाग निकले. दिनांक 7 अक्टूबर सन् 1857 ई. को सुरेंद्र साय ने अचानक ही संबलपुर के किले पर आक्रमण कर दिया. संबलपुर के तत्कालीन कमिश्‍नर कैप्टन ली ने घबराकर सुरेन्द्र साय के सामने संधि का प्रस्ताव रखा. सुरेंद्र साय ने उस पर विश्वास कर लिया पर ली ने उन्हें छलपूर्वक बंदी बना लिया. सुरेंद्र साय अंग्रेज अधिकारियों को चकमा देकर फिर से भाग निकले. इसके बाद सुरेंद्र साय ने छापामार युध्द किया. सुरेन्द्र साय की गिरफ्तारी के लिए तत्कालीन अंग्रेज सरकार की ओर से एक हजार रूपए के नगद पुरस्कार की घोषणा भी की गई. अंततः अंग्रेजों ने उन्हें संधि प्रस्ताव भेजा और सन् 1862 में उन्हेंक 4600 रुपए प्रतिवर्ष पेंशन के रूप में देने का वचन दिया. सुरेंद्र साय ऊपर से तो सहमत हो गए परन्तु उन्होने अपने विश्वस्त साथी कमल सिंह को सेना गठित करने के लिए कहा. जब अंग्रेज सरकार को यह पता चला तो उन्होंने सुरेंद्र साय को उनके पुत्र, भाई एवं भतीजों सहित 23 जनवरी सन् 1864 ई. को गिरफ्तार कर लिया. उनकी सारी सम्पत्ति जप्त कर ली गई और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. बाद में नागपुर जेल से हटाकर उन्हें असीरगढ़ के किले में डाल दिया गया. यहीं पर 28 फरवरी सन् 1884 ई. को वीर सुरेन्द्र साय की मृत्यु हो गई.

वीर हनुमान सिंह

वीर नारायण सिंह की फाँसी के मात्र 39 दिनों बाद ही 18 जनवरी सन् 1858 ई. को रायपुर में ठाकुर हनुमान सिंह के नेतृत्व में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया. यद्यपि इस विद्रोह को मात्र छह-सात घंटे में ही दबा दिया गया लेकिन यह एक साहसिक प्रयास और ऐतिहासिक घटना थी. रायपुर में उस समय फौजी छावनी थी. इसे थर्ड रेगुलर रेजीमेण्ट कहा जाता था. इसी रेजीमेण्ट में हनुमान सिंह मैग्जीन लश्कर के पद पर नियुक्त थे. हनुमान सिंह ने अंग्रेजों से वीर नारायण की फांसी का बदला लेने की प्रतिज्ञा की थी. दिनांक 18 जनवरी सन् 1858 ई. की रात्रि साढ़े सात बजे हनुमान सिंह सार्जेण्ट मेजर सिडवेल के कक्ष में घुस गए और तलवार से उनपर घातक प्रहार किए जिससे मेजर सिडवेल की मौत हो गई. इसके बाद ठा. हनुमान सिंह अपने कुछ साथियों के साथ छावनी पहुँचे. उन्होंने ऊँची आवाज में अपने अन्य साथी सिपाहियों को भी इस विद्रोह में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया. दुर्भाग्य से सभी सिपाहियों ने उनका साथ नहीं दिया. इसी बीच सिडवेल की हत्या का समाचार पूरी छावनी में फैल चुका था. अंग्रेज अधिकारि‍यों ने हनुमान सिंह और उनके साथियों को चारों तरफ से घेर लिया. हनुमान सिंह और उनके साथी 6-7 घंटे तक अंग्रेजों का मुकाबला करते रहे. अंत में उनके कारतूस खत्म हो गए. मौका देखकर हनुमान सिंह तो भागने में सफल हो गए लेकिन उनके सत्रह साथी गिरफ्तार कर लिए गए. सिपाहियों राष्ट्रद्रोह और बगावत का मुकदमा चलाया गया और सबको मृत्युदण्ड दिया गया.

दिनांक 22 फरवरी, सन् 1858 ई. को फौज के सभी सिपाहियों की उपस्थिति में इन्हें फाँसी पर लटका दिया गया. इन सत्रह शहीदों के नाम हैं- गाजी खान (हवलदार), अब्दुल हयात (गोलंदाज), मुल्लू (गोलंदाज), शिवरी नारायण (गोलंदाज), पन्नालाल (सिपाही), मातादीन (सिपाही), ठाकुर सिंह (सिपाही), अकबर हुसैन (सिपाही), बल्ली दुबे (सिपाही), लल्ला सिंह (सिपाही), बुद्धु (सिपाही), परमानंद (सिपाही), शोभाराम (सिपाही), दुर्गाप्रसाद (सिपाही), नाजर मोहम्मद (सिपाही), शिव गोविंद (सिपाही) और देवीदीन (सिपाही). कैप्टन स्मिथ के बयान से लगता है कि ठा. हनुमान सिंह ने छावनी में विद्रोह के दो दिन बाद ही फिर से 20 जनवरी सन् 1858 ई. की देर रात छत्तीसगढ़ क्षेत्र के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर के बंगले पर भी हमला करने की कोशिश की थी. ठीक समय पर कैप्टन स्मिथ और उसके साथियों के जाग जाने से हनुमान सिंह को वहाँ से भागना पड़ा. उनकी गिरफ्तारी के लिए पाँच सौ रुपए के नगद पुरस्कार की घोषणा भी की गई थी. हनुमान सिंह को कभी गिरफ्तार नहीं किया जा सका. छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में खेल प्रशिक्षकों हेतु राज्य स्तरीय वीर हनुमान सिंह पुरस्कार की स्थापना की है.

वीर गुण्डाधूर

गुण्डाधूर का जन्म बस्तर के नेतानार नामक गाँव में हुआ था. वे सन् 1910 ई. के आदिवासी विद्रोह के सूत्रधार थे. वे धुरवा जनजाति के थे. सन् 1909-10 ई. में बस्तर में राजा रुद्रप्रताप देव राज करते थे. अंग्रेज सरकार ने वहाँ बैजनाथ पण्डा नाम के एक व्यक्ति को दीवान के पद पर नियुक्त किया था. दीवान बैजनाथ पण्डा आदिवासियों का शोषण करता और उन पर अत्याचार करता था. बस्तर के लोग त्रस्त थे. बस्तर के अधिकांश लोगों की आजीविका वन और वनोपज पर आधारित थी। वनोपज से ही वे अपना जीवनयापन करते थे। दीवान बैजनाथ पंडा की नीतियों से वनवासी अपनी आवश्यकता की छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए भी तरसने लगे. जंगल से दातौन और पत्तियाँ तक तोड़ने के लिए भी उन्हें सरकारी अनुमति लेनी पड़ती. आदिवासियों से बेगार भी ली जा रहा थी. शराब ठेकेदार लोगों का शोषण करते थे. जनता में असंतोष पनपने लगा. राजा के चाचा लाल कालेन्द्र सिंह और राजा की सौतेली माँ सुवर्ण कुँवर जनता में बहुत लोकप्रिय थे. सन् 1909 ई. में बस्तर की जनता ने इनके साथ मिलकर इंद्रावती नदी के तट पर एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया. हाथों में धनुष, बाण और फरसा लिए हजारों लोग इसमें शामिल हुए. इस सम्मेलन में सबने यह संकल्प लिया कि वे दीवान और अंग्रेजों के दमन व अत्याचार के विरुध्द संघर्ष करेंगे. युवक गुण्डाधूर को नेता चुना गया. गुण्डाधूर का असली नाम सोमारू था. सन् 1910 ई. में जब बस्तर का संघर्ष हुआ, तब गुण्डाधूर की उम्र लगभग 35 वर्ष थी. इस विद्रोह को स्थानीय बोली में ‘भूमकाल’ कहा गया. इसका संदेश आम की टहनियों में मिर्च बाँधकर गाँव-गाँव में भेजा जाता था. स्थानीय लोग इसे ‘डारामिरी’ कहते और बड़े उत्साह से उसका स्वागत करते. अल्प समय में ही हजारों लोग ‘भूमकाल आंदोलन’ से जुड़ गए. उनकी योजना में अंग्रेजों के संचार साधनों को नष्ट करना, सड़कों पर बाधाएँ खड़ी करना, थानों एवं अन्य सरकारी कार्यालयों को लूटना और उनमें आग लगाना शामिल था. दिनांक 2 फरवरी सन् 1910 ई. को इस ऐतिहासिक ‘भूमकाल’ की शुरुआत हुई. देखते ही देखते यह पूरे बस्तर में फैल गया. अंग्रेज सरकार ने इस विद्रोह को कुचलने के लिए मेजर गेयर और डी बेरट को 500 सशस्त्र सैनिकों के साथ बस्तर भेजा. गुण्डाधूर ने मूरतसिंह बख्शी, बालाप्रसाद नाजिर, वीरसिंह बंदार, रानी सुवर्ण कुँवर तथा लाल कालेन्द्र सिंह के सहयोग से विद्रोह का कुशलतापूर्वक संचालन किया. आधुनिक हथियारों से लैस अंग्रेज सैनिकों का इन वनवासियों ने अपने डण्डा, भाला, तीर, तलवार और फरसा से जमकर मुकाबला किया. सैकड़ों क्रांतिकारी तथा अंग्रेज सैनिक मारे गए. मई सन् 1910 ई. तक यह विद्रोह अंग्रेजों द्वारा क्रूरतापूर्वक कुचल दिया गया. उत्तर से दक्षिण 136 किलोमीटर और पूर्व से पश्चिम 95 किलोमीटर का बस्तर क्षेत्र इस उथल-पुथल से प्रभावित था. गुण्डाधूर ने पुनः अपने सहयोगियों को एकत्रित कर अलनार में अंग्रेजों से मुकाबला किया. सोनू माँझी नामक एक लालची व्यक्ति के विश्वासघात करने पर उनके कई साथी मारे तथा पकड़े गए. पकडे़ गए लोगों को बाद में फाँसी दे दी गई. गुण्डाधूर किसी तरह से बच निकले. अंग्रेजों ने बस्तर का चप्पा-चप्पा छान मारा, लेकिन अंत तक गुण्डाधूर का पता नहीं लगा सके. जनश्रुतियों तथा गीतों में गुण्डाधूर की वीरता का वर्णन है.

पं. माधवराव सप्रे

पं. माधवराव सप्रे महान पत्रकार, विचारक, लेखक तथा स्वतंत्रता सेनानी थे. उनका जन्म मध्यप्रदेश के दमोह जिले के पथरिया नामक ग्राम में 19 जून सन् 1871 ई. को हुआ था. उनके पिताजी का नाम कोडोपंत तथा माताजी का नाम श्रीमती लक्ष्मीबाई था. उनके पिताजी बिलासपुर आकर बस गए. हाईस्कूल की शिक्षा के लिए पं. माधवराव सप्रे जी रायपुर आए. यहाँ के गवर्नमेंट हाईस्कूल में पढ़ाई करते समय उनके हिन्दी शिक्षक श्री नंदलाल दुबे की प्रेरणा से उनमें हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ. उन्होंने ग्वालियर से एफ.ए. तथा नागपुर से बी.ए. की शिक्षा ग्रहण की. उनकी प्रतिभा और योग्यता से प्रभावित होकर ब्रिटिश शासन ने उन्हें शासकीय नौकरी में उच्च पदों पर नियुक्ति हेतु आमंत्रित किया पर उन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. सन् 1899 ई. में सप्रेजी 50 रुपए मासिक वेतन पर पेण्ड्रा राजकुमार के शिक्षक नियुक्त हो गए. उसी धन से उन्होंने सन् 1900 ई. में अपने मित्र पं. वामनराव लाखे तथा रामराव चिंचोलकर के सहयोग से मासिक पत्र ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन प्रारंभ किया जो इस क्षेत्र का पहला पत्र था. अर्थाभाव के कारण यह तीन वर्ष ही चल सका और सन् 1902 ई. में बंद हो गया. इसने ने पत्रकारिता के मानदण्ड स्थारपित किए. हिन्दी साहित्य में समालोचना का प्रांरभ छत्तीसगढ़ मित्र के माध्यम से पं. माधवराव सप्रे ने ही किया. उनकी कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ संभवतः हिन्दी की पहली मौलिक तथा श्रेष्ठ कहानियों मे से एक है. यह कहानी छत्तीसगढ़ मित्र में ही सर्वप्रथम प्रकाशित हुई थी. सन् 1900 में ही पं. माधवराव सप्रे की प्रेरणा से कंकालीपारा, रायपुर में आनंद समाज वाचनालय की स्थापना हुई. यह वाचनालय उस समय राष्ट्रीय चेतना और राजनीतिक विचार-विमर्श का एकमात्र केन्द्र था। सन् 1905 ई. में सप्रे जी ने नागपुर में ‘हिन्दी ग्रंथ प्रकाशन मंडली’ की स्थापना की. पं. माधवराव सप्रे ने सन् 1906 में ‘हिन्दी ग्रंथमाला’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया जो सन् 1908 में ब्रिटिश सरकार प्रेस एक्ट में बंद करवा दिया गया. इसके एक अंक में ‘स्वदेशी आंदोलन और बायकाट’ शीर्षक से एक लंबा निबंध प्रकाशित हुआ. सन् 1908 में यह पुस्तिका के रुप में प्रकाशित किया गया। देखते ही देखते इसकी हजारों प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक गईं. इसे अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया. सन् 1905 ई. के बनारस अधिवेशन में पं. माधवराव सप्रे ने प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया. यहीं उनकी भेट लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से हुई. वे तिलक जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे. सप्रे जी उनकी विचारधारा का हिन्दी में प्रचार प्रसार करना चाहते थे। सप्रे जी ने बाल गंगाधर तिलक की अनुमति से उनके मराठी के प्रखर पत्र ‘केसरी’ के हिन्दी संस्करण का प्रकाशन नागपुर में 13 अप्रैल सन् 1907 ई. से साप्ताहिक ‘हिन्दी केसरी’ ने नाम से प्रारंभ किया. हिन्दी केसरी में काला पानी, सरकार की दमन नीति और भारत माता के पुत्रों का कर्तव्य, बम गोले का रहस्य जैसे राजद्रोहात्मक लेख लिखने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया. पारिवारिक दबाव में आकर पं. माधवराव सप्रे ने क्षमा माँगी और तीन माह बाद जेल से रिहा हो गए. इससे उन्हें अत्यंत ग्लानि हुई. पश्चाताप की अग्नि में जलकर उनका व्यक्तित्व तपस्यामय हो गया था. उन्होंने सन् 1909 ई. में रायपुर में रामदास मठ की स्थापना की. सन् 1910 ई. से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके ओजस्वी लेखों का पुनः प्रकाशन प्रारंभ हो गया. उस समय की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में से एक ‘सरस्वती’ में पं. माधवराव सप्रे के कई लेख छद्म नामों से प्रकाशित हुए. उन्होंने गुरु रामदास के ‘दासबोध’ का मराठी से हिन्दी में अनुवाद किया तथा श्रीराम चरित्र, एकनाथ चरित्र, आत्म विद्या, भारतीय युद्ध नामक ग्रंथों की रचना की। उन्होंने बाल गंगाधर तिलक के मराठी में लिखे ‘गीता रहस्य’ का हिन्दी में अनुवाद किया. नई पीढ़ी के लिए उन्होंने प्रेरक साहित्य की रचना की. पं. माधवराव सप्रे शिक्षा का माध्यम हिन्दी को बनाने के पक्षधर थे. उन्होंने पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली के दोषों को सामने रखा. वे अस्पृष्यता को एक सामाजिक कलंक मानते थे. पं. माधवराव सप्रे लड़कियों की शिक्षा तथा स्त्री-स्वातंत्र्य के प्रबल पक्षधर थे. उन्होंने सन् 1912 ई. में रायपुर में जानकीदेवी कन्या पाठशाला की स्थापना की. सन् 1921 में गाँधीजी के आह्वान पर सरकारी स्कूल छोड़ने वाले विद्यार्थियों की शिक्षा-दीक्षा हेतु उन्होंने रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय तथा अनाथ बच्चों हेतु हिन्दू अनाथालय की स्थापना करवायी. सन् 1918 ई. में रायपुर में प्रांतीय हिन्दी सम्मेलन की स्थापना में सप्रे जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सन् 1920 में सप्रे जी के अथक प्रयासों से ही जबलपुर में साप्ताहिक ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन आरंभ हुआ. इसके संपादक पं. माखनलाल चतुर्वेदी थे. सप्रे जी के प्रयासों से ही नागपुर से ‘संकल्प’ नामक पत्र का प्रकाशन हुआ. इसके संपादक पं. प्रयागदत्त शुक्ल थे. पं. माधवराव सप्रे उच्चकोटि के प्रवचनकर्ता थे. वे छत्तीसगढ़ के कई नगरों में अपने प्रवचन के माध्यम से राजनीतिक जागृति उत्पन्न करते रहे. सन् 1924 में सप्रे जी देहरादून में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. वे जीवन पर्यंत साहित्य साधना में लीन रहे. दिनांक 23 अप्रैल सन् 1926 ई. को पं. माधवराव सप्रे जी का रायपुर में देहावसान हो गया.

पं. वामनराव लाखे

छत्तीसगढ़ अंचल में सहकारिता के जनक माने जाने वाले पं. वामनराव लाखे का जन्म 17 सितम्बर सन् 1872 ई. को रायपुर में हुआ था. उनके पिताजी का नाम पं. बलीराम गोविन्दराव लाखे था. वामनराव लाखे ने मैट्रिक तक की पढ़ाई रायपुर में की. पं. माधवराव सप्रे उनके सहपाठी तथा अभिन्न मित्र थे. सन् 1898 में उन्होंने नागपुर के फिलिप कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा पास की. सन् 1900 ई. में पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्र नामक मासिक पत्र का प्रकाशन किया. पं. वामनराव लाखे इसके प्रकाशक तथा स्वामी थे. यह छत्तीसगढ़ अंचल का पहला पत्र था. पं. वामनराव लाखे सन् 1904 ई. में कानून की पढ़ाई पूरी कर रायपुर में वकालत करने लगे. वे कई वर्षों तक रायपुर के अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष रहे. उनकी पत्नी श्रीमती जानकी बाई ने भी घरेलू कामकाज के साथ-साथ लाखेजी की समाज सेवा के कार्य में हमेशा साथ दिया. वे कई बार बूढ़ापारा वार्ड से रायपुर नगर पालिका के सदस्य चुने गए तथा दो बार नगरपालिका के अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए. किसानों को साहूकारों के चंगुल से मुक्त करने के लिये उन्होने सन् 1913 ई. में रायपुर में को-आपरेटिव सेण्ट्रल बैंक की स्थापना की. वे सन् 1936 ई. तक इसके अवैतनिक सचिव तथा सन् 1937 ई. से 1940 ई. तक अध्यक्ष रहे. उन्हीं के प्रयासों से ही बैंक का अपना भवन बन सका. वे सन् 1915 में रायपुर में होमरुल लीग के संस्थापकों में से थे. सन् 1915 ई. में पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रयासों से आयोजित किसान सम्मेलन की अध्यक्षता पं. वामनराव लाखे ने ही की थी. निर्धन किसानों के कल्याण हेतु किए गए लाखे जी के कार्यों से प्रसन्न होकर तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘राय साहब’ की उपाधि दी थी. उन्होंने सन् 1920 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन में भाग लेते हुए यह उपाधि लौटा दी. लोगों ने उन्हें ‘लोकप्रिय’ की उपाधि से विभूषित किया था.

वे असहयोग आंदोलन में थे. उन्होंने स्वदेशी तथा खादी का प्रचार किया. सन् 1921 ई. पं. माधवराव सप्रे ने राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की तो लाखे जी इसके मंत्री बने. सन् 1922 में वामनराव लाखे रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए. सन् 1930 ई. में गाँधीजी द्वारा शुरु किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन का रायपुर में नेतृत्व पं. वामनराव लाखे, प्यारेलाल सिंह, मौलाना अब्दुल रऊफ, महंत लक्ष्मीनारायण दास तथा शिवदास डागा ने किया. इन्हें ‘पाँच पाण्डव’ कहा जाता था. इनमें से लाखे जी को ‘युधिष्ठिर’ कहा जाता था. आरंग में एक जनसभा में अंग्रेजी शासन के खिलाफ भाषण देने के कारण उन्हेंम गिरफ्तार कर लिया गया और एक साल की सजा तथा तीन हजार रुपए का जुर्माना सुनाया गया. सन् 1941 ई. के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण उन्हें फिर से सिमगा से गिरफ्तार कर लिया गया तथा चार माह के कारावास की सजा दी गई. पं. वामनराव लाखे ने सन् 1945 ई. में बलौदाबाजार में किसान को-आपरेटिव राइस मिल की स्थापना की. उन्होंने रायपुर एम. व्ही. एम. स्कूल की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया. यही कारण है कि उनकी मृत्यु के बाद इस स्कूल का नाम बदलकर श्री वामनराव लाखे उच्चतर माध्यमिक शाला, रायपुर कर दिया गया. दिनांक 21 अगस्त सन् 1948 ई. को उनका देहान्त हो गया.

पं. रविशंकर शुक्ल

मध्य प्रदेश के निर्माता के रूप में विख्यात पं. रविशंकर शुक्ल का जन्म 2 अगस्त सन् 1877 ई. को सागर में हुआ था. उनके पिताजी का नाम जगन्नाथ प्रसाद तथा माताजी का नाम तुलसी देवी था. उनकी प्रारंभिक शिक्षा सागर में ही हुई. बाद में उनके पिताजी अपने कारोबार के सिलसिले में राजनांदगाँव चले गए. कुछ समय बाद वे रायपुर में आकर बस गए. बी.ए. करने के बाद रविशंकर शुक्ल की नियुक्ति चीफ कमिश्नर के दफ्तर में हुई. सन् 1901 में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी. वे जबलपुर के हितकारिणी स्कूल में शिक्षक बन गए और कानून की शिक्षा ग्रहण करने लगे. सन् 1902 में रविशंकर शुक्ल का विवाह भवानी देवी से हुआ. विवाह के बाद वे खैरागढ़ आ गए और उनकी नियुक्ति एक हाईस्कूल में प्राचार्य के पद पर हो गई. उन्होंने बस्तर के युवराज रुद्रप्रताप देव, कवर्धा के युवराज यदुनंदन सिंह तथा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को पढ़ाया था. सन् 1907 ई. में रविशंकर शुक्ल ने राजनांदगाँव में वकालत शुरु की. कुछ ही महीनों बाद वे रायपुर आकर वकालत करने लगे. सन् 1910 ई. में वे प्रयाग कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित हुए. सन् 1912 ई. में रविशंकर शुक्ल के प्रयासों से कान्य कुब्ज महासभा की स्थापना हुई. उन्होंने रायपुर में कान्य कुब्ज छात्रावास की स्थापना की तथा कान्य कुब्ज मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरु किया. जलियाँवाला बाग हत्याकांड से आहत होकर उन्होंने अपना संपूर्ण समय और शक्ति देश को आजाद कराने के लिए लगाने का संकल्प किया. विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार एवं स्वदेशी के प्रचार हेतु उन्होंने स्वयं खादी वस्त्र धारण करना प्रारंभ किया. अंग्रेजी शिक्षा के बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार के लिए उन्होंने जनवरी सन् 1921 ई. में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना करवायी. उन्होंने ‘आयरलैण्ड का इतिहास’ लिखा जो ‘उत्थान’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ. सन् 1921 में शुक्ल जी को अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति का सदस्य चुना गया. इसी वर्ष उनका रायपुर जिला परिषद् के सदस्य के रुप में चुनाव किया गया. सन् 1922 में रायपुर जिला परिषद के सम्मेलन में कुछ अंग्रेज अधिकारियों को बिना टिकट के प्रवेश नहीं देने पर उन्हें गिरफ्तार किया गया. वे सन् 1927 से 1936 ई. तक शुक्ल जी रायपुर जिला परिषद् के अध्यक्ष रहे. अध्यक्ष की हैसियत से उन्होंने जिले भर में स्कूलों का जाल फैला दिया और स्कूुलें में वन्दे मातरम् का गायन और राष्ट्रीय झण्डे को फहराना अनिवार्य कर दिया. सन् 1924 में वे पहली बार प्रांतीय विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए. उन्होंने गाँधीजी व्दारा चलाए गए नमक सत्याग्रह तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन का रायपुर में नेतृत्व उन्होंने किया और कई बार जेल की यातनाएँ सहीं. नवम्बर सन् 1933 ई. में गाँधीजी के छत्तीसगढ़ प्रवास में वे शुक्ल जी के बूढ़ापारा स्थित निवास में ठहरे थे.क्षेत्र में राजनैतिक व सामाजिक चेतना जागृत करने के लिए सन् 1935 ई. में उन्होंने साप्ताहिक महाकौशल का प्रकाशन आरंभ किया् शुक्ल जी सन् 1936 ई. में डॉ. खरे मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री बने. उन्होंने बुनियादी शिक्षा सिध्दांत के अनुरुप विद्यामंदिर योजना शुरु की. पहली विद्यामंदिर का शिलान्यास गाँधीजी ने किया. सन् 1939 ई. में मंत्रिमंडल ने त्याग पत्र दे दिया. सन् 1940 ई. में गाँधीजी के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेते हुए वे पुनः गिरफ्तार किए गए. सन् 1942 ई. में भारत छोडों आंदोलन की घोषणा होने पर उन्हें मलकापुर रेलवे स्टेशन में गिरफ्तार किया गया. सन् 1946 ई. के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रांत में कांग्रेस को भारी बहुमत मिला. पं. रविशंकर शुक्ल मुख्यधमंत्री बने. सन् 1956 ई. तक वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. छत्तीसगढ़ की सभी चौदह रियासतों का मध्यप्रदेश में विलय कराने में भी उन्होकने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्होंने सागर में हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, रायपुर में संस्कृत, विज्ञान और आयुर्वेदिक महाविद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वे संविधान सभा के सदस्य भी थे. दिनांक 1 नवम्बर सन् 1956 ई. को नए राज्य मध्यप्रदेश का गठन होने पर पं. रविशंकर शुक्ल ही नए राज्य के मुख्यमंत्री बने. दिनांक 31 दिसम्बर सन् 1956 ई. को हृदयाघात से उनका देहावसान हो गया. छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक क्षेत्र में अभिनव प्रयत्नों के लिए पं. रविशंकर शुक्ल सम्मान स्थापित किया है.

पं. सुन्दरलाल शर्मा

जिस प्रकार भारत में राष्ट्रीय जागरण का अग्रदूत राजा राममोहन राय को माना जाता है ठीक उसी तरह छत्तीसगढ़ अंचल में राष्ट्रीय जागरण के प्रणेता पं. सुन्दरलाल शर्मा को माना जाता है. बहुमुखी प्रतिभा के धनी पं. सुन्दरलाल शर्मा महान साहित्यकार, मूर्तिकार, चित्रकार, शिक्षाविद, समाज सुधारक एवं स्वतंत्रता सेनानी थे. पं. सुन्दरलाल शर्मा का जन्म 21 दिसम्बर सन् 1881 ई. को राजिम के पास महानदी के तटवर्ती ग्राम चमसुर में हुआ था. उनके पिता पं. जियालाल तिवारी तत्कालीन कांकेर रियासत में विधि सलाहकार थे. सुंदरलाल शर्मा की विधिवत स्कूली शिक्षा केवल प्राथमिक स्तर तक ही हुई. पढ़ाई में रुचि होने से उन्होंने स्वाध्याय से ही संस्कृत, बांग्ला, मराठी, अंग्रेजी, उर्दू, उड़िया आदि कई भाषाएँ भी सीख लीं. सन् 1898 ई. में उन्होंने पं. विश्वनाथ दुबे के सहयोग से राजिम में कवि समाज की स्थापना की. यह ऐसी पहली साहित्यिक संस्था थी जिसने छत्तीसगढ़ अंचल में साहित्यिक चेतना जागृत की. सन् 1903 ई. में वे अखिल भारतीय कांग्रेस के सदस्य बने. उन्होंने सन् 1907 ई. में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में छत्तीसगढ़ का नेतृत्व किया. उन्होयने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का आंदोलन किया. इस हेतु पं. सुन्दरलाल शर्मा ने अपनी जमीन जायदाद बेचकर राजिम, धमतरी और रायपुर में स्वदेशी वस्तुओं की कई दुकानें खोलीं तथा लगातार घाटा होने पर भी उन्हें वर्षों चलाया. अगस्त सन् 1920 ई. में बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव के नेतृत्व में कण्डेल ग्राम में नहर सत्याग्रह आरंभ हुआ. यह भारत का प्रथम सत्याग्रह आंदोलन था जिसे स्वयं किसानों ने संगठित होकर चलाया. इस समय पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रयासों से 20 दिसम्बर सन् 1920 ई. को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का पहली बार छत्तीसगढ़ आगमन हुआ. सन् 1925 ई. में धमतरी में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ तो शर्मा जी ही ने दोनों पक्षों में समझौता कराया. सन् 1930 ई. में जंगल सत्याग्रह का नेतृत्व करने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा राजद्रोह का अभियोग लगाकर दो वर्षों का कठोर कारावास दिया गया. उन्होंने राजिम में एक संस्कृत पाठशाला तथा एक वाचनालय स्थापित किया था. रायपुर के बाह्मण पारा में ‘बाल समाज पुस्तकालय’ की स्थापना का श्रेय भी उन्हें ही दिया जाता है. पं. सुन्दरलाल शर्मा की मान्यता थी कि दलितों को समाज में सवर्णों की भाँति राजनैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक अधिकार हैं. अस्पृश्यता को वे भारत की गुलामी तथा हिन्दू समाज के पतन का प्रमुख कारण मानते थे. उन्होंने दलितों के उत्थान एवं संगठन के लिए गाँव-गाँव घूमकर प्रयास किया. उनसे यज्ञ करवाया तथा उन्हें जनेऊ पहनाकर समाज में सवर्णों की बराबरी का दर्जा प्रदान किया. अछूतोद्धार के क्षेत्र में किए गए उनके उल्लेखनीय कार्य के कारण उन्हें छत्तीसगढ़ का गांधी कहा जाता है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी ने कहा था- ‘‘सुन्दरलाल जी तो हरिजनोद्धार के इस कार्य में मेरे भी गुरु निकले. समाज सुधार का उनका यह प्रयास प्रशंसनीय एवं अभिनंदनीय है.’’ सुन्दरलाल शर्मा ने छत्तीसगढ़ी बोली को भाषा का रूप दिलाने के लिए अथक प्रयास किया. इस हेतु उन्होंने स्वयं हिन्दी तथा छत्तीसगढ़ी में कई ग्रंथों की रचना की. इनमें प्रमुख हैं- प्रह्लाद चरित्र, करुणा पचीसी, प्रलाप पदावली, श्री रघुराज गुण कीर्तन, ध्रुव चरित्र, छत्तीसगढ़ी दानलीला. उनकी लिखी छत्तीसगढ़ी दानलीला तो इतनी लोकप्रिय हुई कि आज भी लोग गाँव-गाँव में उसे बड़े शौक से गाते हैं. यह छत्तीसगढ़ी का प्रथम प्रबंध काव्य है. वे अपनी कविताओं में ‘सुन्दर कवि’ उपनाम का उपयोग करते थे. पं. सुन्दरलाल शर्मा एक अच्छे चित्रकार तथा मूर्तिकार थे. वे कृषि कार्य में भी अपने विचारों के अनुकूल वैज्ञानिक एवं नवीन पद्धति का उपयोग करते थे. जीवन के अंतिम वर्षों में वे पद की लालसा से दूर अपने गाँव में कृषि कार्य में संलग्न रहे. दिनांक 28 दिसम्बर सन् 1940 को उनका निधन हो गया. छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में साहित्य एवं आंचलिक साहित्य रचना के लिए एक राज्य स्तरीय पं. सुन्दरलाल शर्मा सम्मान स्थापित किया है.

पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय

खड़ी बोली हिन्दी तथा देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार में अपना सर्वस्व अर्पित करने वालों में पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय का नाम अत्यंत श्रद्धापूर्वक लिया जाता है. उनका जन्म जांजगीर-चांपा जिले के ग्राम बालपुर में 4 जनवरी सन् 1887 को हुआ था. उनके पिताजी का नाम पं. चिंतामणि तथा माताजी का नाम देवहुति देवी था. वे पद्मश्री पं. मुकुटधर पाण्डेय के अग्रज तथा पुरुषोत्तम पाण्डेय के अनुज थे. लोचन प्रसाद की प्रारंभिक शिक्षा गृहग्राम बालपुर में ही संपन्न हुई. उन्होंने सन् 1898 ई. में प्रायमरी और सन् 1902 ई. में सम्बलपुर हाईस्कूल से मिडिल स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की थी. सन् 1905 ई. में वे सेंट्रल हिन्दू कॉलेज, काशी में भर्ती हुए. यहीं उनका परिचय एनीबीसेंट तथा अयोध्या सिंह उपाध्याय से हुआ. वे अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर पाए क्योंकि उनकी दादी उनको अकेले नहीं छोड़ना चाहती थीं. उन्होंने केवल हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, उड़िया, उर्दू, बांग्ला और छत्तीसगढ़ी भाषा सीख ली. बालकृष्ण भट्ट के संपादन में निकलने वाली पत्रिका हिन्दी प्रदीप में उनकी पहली कविता सन् 1904 ई. में प्रकाशित हुई. इसी वर्ष ‘सरस्वती’ में पाण्डेय जी की एक छोटी-सी कविता छपी. इसी पत्रिका में अगले साल छत्तीसगढ़ी नाटक ‘कलिकाल’ के दो अंक छपे. इसे छत्तीसगढ़ी का प्रथम नाटक होने का गौरव प्राप्त है. सन् 1906 ई. में उनके प्रथम उपन्यास ‘दो मित्र’ का प्रकाशन हुआ. यह छत्तीसगढ़ प्रांत के साहित्यकारों का प्रथम उपन्यास माना जाता है. सन् 1909 ई. में प्रवासी, नीति कविता और बालिका विनोद नामक उनकी तीन किताबें छपीं और इसी साल उन्होंने नागपुर से प्रकाशित ‘मारवाड़ी’ पत्रिका का संपादन भी किया. सन् 1910 ई. में उन्होरने ‘कविता-कुसुम माला’ नामक काव्य-संग्रह का संपादन किया. इसमें उन्होंने हिन्दी साहित्य के तात्कालीन लगभग सभी प्रमुख कवियों की रचनाएँ सम्मिलित की. इसे शासन ने माध्यमिक शालाओं के पाठ्यक्रम में भी स्वीकृत किया था. उनकी लिखी एक अन्य पुस्तक ‘रघुवंश सार’ (संस्कृत से अनुदित) पटना व नागपुर विश्वविद्यालयों द्वारा पाठ्यपुस्तक के रुप में मान्यता दी गई थी. पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को आधुनिक छत्तीसगढ़ी का प्रथम कवि भी कहा जाता है. सन् 1904 ई. में छत्तीसगढ़ी की प्रथम कविता उन्होंने ही लिखी थी, जिसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ हैं-

“जयति जय-जय छत्तीसगढ़ देस,
जनम भूमि, सुन्दर सुख खान.’’

सन् 1912 ई. में उन्हे काव्य-विनोद की उपाधि दी थी. उन्होंने सन् 1910 ई. में ‘कविता कुसुम माला’ की भूमिका में अंग्रेजी भाषा के ‘लिरिक’ के पर्याय रूप में ‘प्रगीति’ का प्रयोग किया था. उन्होंने ही खड़ी बोली हिन्दी में पहली बार ‘सॉनेट’ कविता लिखी जो बाद में बहुत लोकप्रिय हुई. उन्होंने पहले बालपुर और बाद में नटवर स्कूल, रायगढ़ में अध्यापन किया. सन् 1912 में उन्हें तत्कालीन रायगढ़ राज दरबार के प्रायवेट सेक्रेटरी की हैसियत से रीवाँ दरबार भेजा गया. बाद में उन्हें चन्द्रपुर जमींदारी का ऑनरेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया. पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय को उनकी उत्कृष्ट साहित्यिक सेवाओं के लिए सन् 1921 ई. में जबलपुर में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधिवेशन में सभापति चुना गया. सन् 1939 ई. में रायपुर में संपन्न प्रांतीय इतिहास परिषद में वे सभापति चुने गए थे. अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के मेरठ अधिवेशन में उनको ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि दी गई. पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय उच्च कोटि के पुरातत्ववेत्ता भी थे. उन्होंने सन् 1940 ई. में महाकौशल हिस्टोरिकल सोसायटी की स्थापना की थी. वे इसके चालीस वर्षों तक मंत्री रह कर इतिहास तथा पुरातत्व की सेवा करते रहे. पुराणकालीन अपीलक का सिक्का, महाभारत में उल्लेखित ऋषभ तीर्थ की खोज की तथा सिंघनपुर, विक्रमखोल, कबरा पहाड़ के आदिमानव व्दारा निर्मित शैलचित्रों का अध्ययन किया. स्वतंत्रता के उपरांत सन् 1956 ई. में राज्य पुनर्गठन के समय भी लोचन प्रसाद पाण्डेय ने अंचल के हितों के लिए उग्र संघर्ष किया. उन्हीं की बदौलत चन्द्रपुर क्षेत्र आज संबलपुर जिले में न होकर जांजगीर-चांपा छत्तीसगढ़ में है। चांपा मे. कुष्ठ आश्रम को उनके प्रयासों के चलते ही शासकीय आर्थिक सहयोग मिला. लोचन प्रसाद पाण्डेय का तिहत्तर वर्ष की आयु में 18 नवम्बर सन् 1959 को निधन हो गया.

ई. राघवेन्द्र राव

ई. राघवेन्द्र राव का जन्म अगस्त सन् 1889 ई. में कामठी नगर में हुआ. उनके पिता श्री नागन्ना राव व्यवसाय के लिए बिलासपुरआए थे और वहीं बस गए. राघवेन्द्र राव ने हिस्लॉप कॉलेज, नागपुर में प्रवेश लिया. वे कानून की शिक्षा प्राप्त करने लंदन गए. उनके पिता का आकस्मिक निधन हो गया जिसके कारण उन्हें शिक्षा बीच में छोड़ कर स्वदेश लौटना पड़ा. सन् 1912 में ई. राघवेन्द्र राव ने पुनः विलायत जाकर वकालत की शिक्षा पूरी की और सन् 1914 में वे बैरिस्टर बनकर बिलासपुर लौटे और वहीं वकालत शुरू कर दी. वे सन् 1916 से सन् 1927 तक बिलासपुर नगर पालिका के अध्यक्ष रहे. वे जिला परिषद के अध्यक्ष पर भी आठ वर्षों तक पदासीन रहे. सन् 1920 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधीजी के आह्वान पर ई. राघवेन्द्र राव वकालत छोड़कर सक्रिय राजनीति में कूद पड़े. उसी वर्ष वे महाकौशल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. जब प. मोतीलाल नेहरू ने स्वराज्य पार्टी का गठन किया, तब ई. राघवेन्द्र राव भी उसमें सम्मिलित हो गए. सन् 1923 ई. से सन् 1926 ई. तक वे सी. पी. और बरार विधानसभा में स्वराज्य पार्टी के सदस्य व नेता रहे. उन्होंने सेठ गोविंद दास और पं. रविशंकर शुक्ल के साथ मिलकर क्षेत्र में स्वराज्य पार्टी का गठन किया. सन् 1926 ई. में गठित मंत्रि मण्डल में ई. राघवेन्द्र राव शिक्षामंत्री बनाए गए. शासन के सक्रिय सदस्य होते हुए भी साइमन कमीशन का बहिष्कार कर उन्होंने अपनी देशभक्ति और अदम्य साहस का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया. सन् 1930 में ई. राघवेन्द्र राव सात वर्षों के लिए मध्यप्रांत के राज्यपाल के गृह सदस्य नियुक्त हुए, जो उस समय राज्यपाल के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद होता था. इस पद पर रहते हुए उन्होंने कृषकों की दशा सुधारने के लिए ऋणमुक्ति, सिंचाई सुविधओें का विस्तार, चकबंदी इत्यादि कई जनहित के कार्य करवाए. सन् 1936 ई. में राघवेन्द्र राव चार माह के लिए मध्यप्रांत के प्रभारी राज्यपाल भी बनाए गए. सन् 1939 में राघवेन्द्र राव भारत सचिव के सलाहकार पद पर लंदन बुलाए गए. वहाँ वे दो वर्षों तक रहे. अंतिम समय में ई. राघवेन्द्र राव वाइसराय की कार्यकारिणी कौंसिल में प्रतिरक्षा मंत्री पद पर भी नियुक्त हुए. अंग्रेजी शासन के उच्च पदों पर आसीन रहते हुए भी ई. राघवेन्द्र राव ने राष्ट्रीयता की भावना का त्याग नहीं किया. वे अंग्रेजी प्रशासन से भारतीयों के अधिकार के लिए सतत् संघर्ष करते रहे. सन् 1916 ई. में जब बिलासपुर क्षेत्र में प्लेग की महामारी फैली हुई थी, तब ई. राघवेन्द्र राव ने अपने प्राणों की परवाह न करते हुए कुछ विश्वसनीय साथियों के साथ बीमार लोगों की खूब सेवा की. सन् 1929-30 ई. के ऐतिहासिक अकाल के समय भी उन्होंने गरीब किसानों की भरपूर सहायता की. उनके प्रयासों से लगान व मालगुजारी की वसूली पर रोक लगाई गई तथा लगान का पुनर्निर्धारण उदारता के साथ किया गया. ई. राघवेन्द्र राव ने मध्यप्रांत में निरक्षरता दूर करने के लिए प्रौढ़ शिक्षा की तीव्रगामी योजना बनाई. आंध्रप्रदेश के वाल्टेयर विश्वविद्यालय ने ई. राघवेन्द्र राव को डी. लिट् की उपाधि से सम्मानित किया. ई. राघवेन्द्र राव के व्यक्तिगत पुस्तकालय में लगभग पंद्रह हजार पुस्तकें, थीं जो नगरपालिका वाचनालय, बिलासपुर; एस. बी. आर. कॉलेज वाचनालय, बिलासपुर; नागपुर विश्वविद्यालय तथा आंध्रप्रदेश विश्वविद्यालय में आज भी उपलब्ध हैं. दिनांक 15 जून सन् 1942 ई. को मात्र 53 वर्ष की अल्पायु में ई.राघवेन्द्र राव का निधन हो गया.

ठा. प्यारेलाल सिंह

ठा. प्यारेलाल सिंह छत्तीसगढ़ में श्रमिक आंदोलन के सूत्रधार तथा सहकारिता आंदोलन के प्रणेता थे. उनका जन्म 21 दिसंबर सन् 1891 को राजनांदगाँव जिले के दैहान ग्राम में हुआ था. उनके पिताजी का नाम ठा. दीनदयाल सिंह तथा माताजी का नाम नर्मदा देवी था. उन्होंने रायपुर के गवर्नमेण्ट हाईस्कूल से मैट्रिक तथा हिसलाप कॉलेज से इंटरमीडिएट पास किया तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वकालत की परीक्षा पास की. ठा. प्यारेलाल सिंह के संघर्ष की शुरूआत उनके विद्यार्थी जीवन से ही हो गई थी. सन् 1905-06 ई. में गरीब छात्रों को शिक्षा से वंचित करने के लिए फीस बढ़ा दी गई और यूनिफार्म अनिवार्य कर दिया गया. ठा. प्यारेलाल सिंह के नेतृत्व में छात्रों ने इसके विरूद्ध आंदोलन किया और इसमें सफलता प्राप्त की. सन् 1906 में ठा. प्यारेलाल सिंह बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और क्रांतिकारी साहित्य का प्रचार करते हुए अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की. उन्होंने विद्यार्थी जीवन में ही सन् 1909 में राजनांदगाँव में सरस्वती पुस्तकालय की स्थापना की. यह क्रांतिकारी साहित्य के प्रचार-प्रसार का अच्छा माध्यम सिद्ध हुआ। सन् 1928 में ब्रिटिश सरकार ने इस पुस्तकालय में ताला लगा दिया. पहले उन्होंने दुर्ग में वकालत की फिर रायपुर में. अप्रेल 1920 में ठा. प्यारेलाल सिंह के नेतृत्व में राजनांदगाँव के बी.एन.सी. मिल के मजदूरों ने हड़ताल कर दी. यह देश की सबसे लम्बी हड़ताल थी, जो 36 दिनों तक चली. अंत में मजदूरों की माँगें पूरी हुई. इसी वर्ष गांधीजी के आह्वान पर वे असहयोग आंदोलन में कूद पड़े और वकालत छोड़ दी. उन्होंने खादी और स्वदेशी का प्रचार-प्रसार किया. उन्होंने पं. बलदेव प्रसाद मिश्र के सामिलकर राजनांदगाँव में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की थी. सन् 1924 में राजनांदगाँव के मिल मजदूरों ने ठा. प्यारेलाल के नेतृत्व में पुनः हडताल कर दी. उन्हें राजनांदगाँव छोड़ने के लिए मजबूर किया गया. वे स्थायी रूप से रायपुर में बस गए. स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेते हुए वे अनेक बार जेल गए तथा यातनाएँ सहीं. उनके घर पर छापा मारकर सारा सामान कुर्क कर लिया गया और वकालत की सनद भी जब्त कर ली गई, परंतु वे अपने मार्ग से नहीं हटे.सन् 1934 में उन्हेंक महाकोशल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का मंत्री चुना गया. सन् 1936 में वे पहली बार मध्यप्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गए. वे तीन बार (सन् 1937,1940 व 1944 में) रायपुर नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए. छत्तीसगढ़ के बुनकरों को संगठित करने के लिए ठा. प्यारेलाल सिंह ने 6 जुलाई सन् 1945 ई. को छत्तीसगढ़ बुनकर सहकारी संघ की स्थापना की. वे मृत्युपर्यंत उसके अध्यक्ष रहे. ठा. प्यारेलाल सिंह ने छत्तीसगढ़ कंज्यूमर्स, म. प्र. पीतल धातु निर्माता सहकारी संघ, विश्वकर्मा औद्योगिक सहकारी संघ, तेलघानी सहकारी संघ, ढीमर सहकारी संघ, स्वर्णकार सहकारी संघ आदि अनेक संस्थाओं का निर्माण किया. वे छत्तीसगढ़ में सहकारी आंदोलन के पुरोधा थे. छत्तीसगढ़ के रियासतों का भारतीय संघ में विलय कराने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. प्रवासी छत्तीसगढ़ियों को शोषण एवं अत्याचार से मुक्त कराने की दिशा में भी वे सक्रिय रहे. सन् 1950 ई. में ठा. प्यारेलाल सिंह ने ‘राष्ट्रबंधु’ नामक अर्धसाप्ताहिक का प्रकाशन किया. वे हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी के विव्दान थे. इतिहास, राजनीति, धर्म, दर्शन के क्षेत्र में उनका ज्ञान अगाध था. ग्रामीणों के बीच वे अपना भाषण छत्तीसगढ़ी तथा सामान्य बोलचाल की भाषा में देते थे. वैचारिक मतभेदों के कारण ठा. प्यारेलाल सिंह ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और आचार्य कृपलानी जी के व्दारा गठित किसान मजदूर पार्टी में शामिल हो गए. सन् 1952 में वे रायपुर से मध्यप्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए तथा विरोधी दल के नेता बने. भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को भू-स्वामी बनाने के लिए उन्होंने आचार्य विनोबा भावे के भूदान एवं सर्वोदय आंदोलन छत्तीसगढ़ में विस्तारित किया. इसी भू-दान के लिए पदयात्रा करते समय जबलपुर के समीप वे अचानक अस्वस्थ हो गए और 20 अक्टूबर सन् 1954 को उनका निधन हो गया. छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में सहकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करने के लिए ठा. प्यारेलाल सिंह सम्मान स्थापित किया है.

पं. रामदयाल तिवारी

मुंशी प्रेमचंद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे साहित्यकार पं. रामदयाल तिवारी जी की समालोचना का लोहा मानते थे. माधुरी पत्रिका ने तिवारी जी को ‘समर्थ समालोचक’ की उपाधि से विभूषित किया था. रामदयाल तिवारी का जन्म 23 जुलाई सन् 1892 को रायपुर में हुआ था. उनके पिताजी का नाम रामबगस तिवारी तथा माता का नाम गलाराबाई था. आर्थिक स्थिति कमजोर होने से रामदयाल ट्यूशन करके पढ़ाई का खर्च निकालते थे और रात को नगर पालिका के लैम्प के नीचे सड़क के किनारे बैठकर पढ़ाई करते थे. मोहल्ले के गणेशोत्सव में सजावट का दायित्व उन्हीं पर होता था. वे रायगढ़ में शिक्षक बने. उन्होमने पं. मुकुटधर पांडेय को पढ़ाया था. सन् 1915 में पं. रामदयाल तिवारी ने वकालत की शिक्षा पूरी की और रायपुर में वकालत करने लगे. समालोचना के क्षेत्र में तिवारी माधवराव सप्रेजी के सच्चे उत्तराधिकारी थे. हितवाद, माडर्न रिव्यू, हिंदू आदि पत्र-पत्रिकाओं में उनके सम सामयिक समस्याओं पर विचारोत्तेजक लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे. तिवारी जी का हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू, उड़िया, मराठी एवं उर्दू पर समान अधिकार था. पं. रामदयाल तिवारी स्वाधीनता आंदोलन सें भी घनिष्ठ रूप जुड़े रहे। सन् 1930 ई. में ठा. प्यारेलाल सिंह सहित कई नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में उन्होंने धारा 144 लागू होने पर भी दस हजार लोगों का जुलूस निकाला और सभा की. इसी वर्ष रायपुर प्लेटफार्म पर बंदी सत्याग्रहियों के स्वागत के लिए एकत्र भीड़ पर पुलिस ने अंधा-धुंध लाठियाँ बरसाई थीं. इस बर्बरतापूर्ण कार्यवाही की जाँच के लिए प्रबुद्ध नागरिकों की एक समिति गठित की गई जिसके तिवारी प्रमुख सदस्य थे. पं. रामदयाल तिवारी कभी जेल नहीं गए किंतु स्वाधीनता आंदोलन में उनकी भूमिका किसी से कम नहीं थी. सन् 1935 में पं. रामदयाल तिवारी एक दुर्घटना में घायल हो गए। उन्हें कई माह अस्पताल में रहना पड़ा. इसी अवधि में उन्होंने ‘गांधी-मीमांसा’ की रचना की. बाद में उन्होंने ‘गांधी एक्सरेड’ नामक एक विशाल ग्रंथ अंग्रेजी में लिखा. इसके अलावा उन्होंने विद्यालयोपयोगी पुस्तकें ‘हमारे नेता’ तथा ‘स्वराज्य प्रश्नोत्तरी’ की रचना की. उन्होवने उमर खय्याम की रूबाइयों पर भारतीय दृष्टिकोण से समीक्षा की. इसे पढ़कर मुंशी प्रेमचंद जी बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने तिवारी जी की मौलिक समीक्षा दृष्टि की प्रशंसा की. दिनांक 21 अगस्त सन् 1942 को उनका निधन हो गया. पं. रामदयाल तिवारी की स्मृति में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के आमापारा चौक के पास एक विद्यालय की स्थापना उनके नाम पर की गई है.

यति यतनलाल

यति यतनलाल का जन्म राजस्थान के बीकानेर शहर में सन् 1894 में हुआ था. ऐसा कहा जाता है कि इनके माता-पिता ने इनका त्याग कर दिया था. जैन धर्म के संत गणी विवेकवर्धन ने उस शिशु को गोद ले लिया उसका पुत्रवत पालन-पोषण रायपुर में किया. स्वाध्याय से ही उन्होंने भाषा, साहित्य और संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था. जब वे 19 वर्ष के हुए तो गणी विवेकवर्धन ने उन्हें यति की दीक्षा दी. सन् 1919 में यति यतनलाल राजनीति से जुड़ गए. सन् 1921 में यतनलाल ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की. सन् 1922 ई. में उन्हें रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी का सदस्य तथा सन् 1924-25 ई. में अध्यक्ष चुना गया. दलित उत्थान व उन्हें संगठित करने के उद्देश्य से गाँव-गाँव में घूमकर प्रयास किए. यति यतनलाल जी ने रायपुर में महावीर पुस्तकालय और महासमुंद में भगत पुस्तकालय की स्थापना की. यहीं पर उनका संपर्क पं. रविशंकर शुक्ल, पं. सुंदरलाल शर्मा, ठा. प्यारेलाल सिंह, महंत लक्ष्मी नारायण दास आदि से हुआ. सन् 1922 ई. में रायपुर जिला राजनीतिक परिषद के आयोजन में जिलाधीश तथा पुलिस कप्तान के बिना प्रवेश-पत्र के जबरन प्रवेश का विरोध करते हुए यति यतनलाल अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार किए गए. उन्होंने अपने सैकडों सहयोगियों के साथ शराब की दुकानों पर धरने दिए और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का कार्य किया. सन् 1930 ई. में उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की. महासमुन्द के तमोरा क्षेत्र में जंगल सत्याग्रह का सफल संचालन यति यतनलाल और शंकरराव गनौदवाले ने ही किया था. इस हेतु उन्हें 25 अगस्त सन् 1930 ई. को उन्हें गिरफ्तार कर एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई, किंतु गांधी-इरविन समझौते के कारण 11 मार्च सन् 1931 ई. को वे रिहा कर दिए गए. सन् 1934 ई. में जब रायपुर में हैजा की महामारी फैली तो यति यतनलाल अपने प्राणों की परवाह किए बिना लगातार रोगियों की सेवा में लगे रहे. सन् 1940 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के आह्वान पर यति यतनलाल ने क्षेत्र में व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया और गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें चार माह की सजा सुनाई गई. सन् 1941 ई. में अपने पालक और गुरु गणी विवेकवर्धन जी के अस्वस्थ हो जाने पर यति यतनलाल ने स्वयं को स्वाधीनता आंदोलन से अलग कर लिया और उनके अंतिम समय तक उनकी जी-जान से सेवा की. वे अक्सर कहा करते थे कि ‘‘मैं आज जो कुछ भी हूँ सिर्फ अपने सद्गुरु के कारण ही हूँ.’’

सन् 1942 ई. में यति यतनलाल को भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के कारण फिर से गिरफ्तार किया गया. जेल से छूटने के पष्चात वे सन् 1946 से 1949 ई. तक वे रायपुर जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे. आजादी के बाद यति यतनलाल जी की राजनीति में रूचि कम होती गई और वे पूज्य गणी जी के महासमुंद स्थित आश्रम में रहकर दीन-दुःखियों की सेवा में लग गए. उन्होंने इस आश्रम में सन् 1976 ई. में एक बड़े अस्पताल की भी स्थापना की. उन्होंने देश के स्वाधीनता सेनानियों को सरकार की ओर से मिलने वाले सम्मान निधि को अस्वीकार कर दिया था. दिनांक 4 अगस्त सन् 1976 ई. को लम्बी बीमारी के बाद यति यतनलाल का निधन हो गया. छत्तीसगढ शासन ने उनकी स्मृति में अहिंसा और गौ-रक्षा के क्षेत्र में राज्य स्तरीय यति यतनलाल सम्मान स्थापित किया है.

पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी महान साहित्यकार थे. उन्होंने साहित्यिक पत्रिका सरस्वती का संपादन किया. उनका जन्म 27 मई सन् 1894 ई. को राजनांदगाँव के खैरागढ़ गाँव में एक हुआ था. मिडिल स्कूल में उनके प्रधानपाठक पं. रविशंकर शुक्ल थे. वे स्कूल से भागकर शमशान के एकांत में चंद्रकांता उपन्यास पढ़ते थे. सन् 1911 में उनका एक अंग्रेजी कहानी का हिंदी अनुवाद हितकारिणी में प्रकाशित हुआ. उन्होंने सेंट्रल हिंदू कॉलेज, काशी से 1916 ई.में बी.ए. पास किया. काशी में उन्हें पं. मदनमोहन मालवीय, पारसनाथ सिंह तथा आत्माराम खरे जैसी महान विभूतियों का सान्निध्य मिला. इसी बीच उनका विवाह लक्ष्मीदेवी से हुआ. उनकी नियुक्ति तत्कालीन राजनांदगाँव स्टेट के एक हाईस्कूल में शिक्षक के पद पर हो गई. उनकी रचनाएँ ‘हितकारिणी’, ‘सरस्वती’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहीं.

सन् 1920 ई. में इलाहाबाद चले गए और वे सरस्वती के संपादक नियुक्त किए गए. यह इंडियन प्रेस इलाहाबाद से प्रकाशित होती थी. जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का स्वागत पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी ने किया था. जब उनके स्वाभिमान को चोट पहुँची तो उन्होंने सन् 1925 ई. में सरस्वती से त्यागपत्र देकर खैरागढ़ लौट आए. सन् 1927 ई. में पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी को पुनः सरस्वती के प्रमुख संपादक के रूप में नियुक्त कर इलाहाबाद बुला लिया गया. सन् 1929 तक उन्होंने इस दायित्व का कुशलतापूर्वक निर्वहन किया. सन् 1929 में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने सरस्वती से त्यागपत्र देकर कांकेर में अध्यापन किया. सन् 1935 ई. में वे अपने पैतृक ग्राम खैरागढ़ आ गए और सन् 1949 ई. तक विक्टोरिया हाईस्कूल, खैरागढ़ में अंग्रेजी अध्यापक के रूप में कार्य किया. इनका संबंध इंडियन प्रेस से लगातार बना रहा. उन्होंने इंडियन प्रेस के लिए कुछ पाठ्यपुस्तकें संपादित कीं. इस बीच उनकी पुस्तकें ‘प्रदीप’ और ‘अश्रुदल’ प्रकाशित हुई. उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक ‘प्रायश्चित’ थी. यह बेल्जियम लेखक मारिस मेटरलिक के नाटक का हिंदी अनुवाद था. बख्शी जी 1952 से 1956 तक खैरागढ से ही सरस्वती का संपादन करते रहे. 1958-59 में ‘शतदल’ तथा कहानी संग्रह ‘झलमला’ प्रकाशित हुई. बख्शी जी सन् 1949 से 1957 ई. तक खैरागढ़ की राजकुमारियों के ट्यूटर रहे. उनके साहित्यिक योगदान को देखते हुए उन्हें सन् 1959 ई. में राजनांदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त किया गया. सन् 1949 ई. में पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति की उपाधि से विभूषित किया गया. सन् 1950 ई. में वे मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति चुने गए. उन्होंने कुछ समय तक रायपुर से निकलने वाले दैनिक समाचार पत्र महाकोशल का संपादन किया था. सन् 1960 ई. में सागर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट्. की मानद उपाधि देकर सम्मानित किया. उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं- विश्व साहित्य, पंचपात्र, हिंदी साहित्य विमर्श, साहित्य चर्चा, मंजरी, बिखरे पन्ने, हिंदी कथा साहित्य, मेरा देश, मेरे प्रिय निबंध, समस्या और समाधान, नवरात्र, हिंदी साहित्य एक ऐतिहासिक समीक्षा. उनके लिखे हुए भावपूर्ण निबंध कारी के आधार पर दाऊ रामचंद्र देशमुख जी ने कारी लोकनाट्य बनाया जिसे बहुत प्रसिध्दि मिली. बख्शी जी की कहानी झलमला कालजयी कहानी मानी जाती है. दिनांक 28 दिसंबर सन् 1971 ई. को रायपुर में उनका देहावसान हो गया. उनके मित्र उन्हें मास्टर जी कहकर संबोधित करते थे. उनकी स्मृति में छत्तीसगढ़ शासन के स्कूल शिक्षा विभाग ने राज्य स्तरीय पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी स्मृति शिक्षक सम्मान स्थापित किया गया है. पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के नाम पर पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर में बख्शी शोधपीठ तथा भिलाई में बख्शी सृजनपीठ की स्थापना की गई है.

पं. मुकुटधर पाण्डेय

पं. मुकुटधर पाण्डेय हिंदी साहित्य के इतिहास में छायावाद के प्रवर्तक के रूप में विख्यात हैं. उनका जन्म जांजगीर-चांपा जिले के चंद्रपुर के निकट स्थित ग्राम बालपुर में 30 सितम्बर सन् 1895 ई. में हुआ था. उनके पिताजी का नाम चिंतामणि पाण्डेय तथा माताजी का नाम देवहुति देवी था. राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार पं. लोचनप्रसाद तथा पं. पुरुषोत्तम पाण्डेय पं. मुकुटधर के अग्रज थे. मुकुटधर पाण्डेय ने सन् 1916 ई. में प्रयाग के क्रिश्चियन कॉलेज में प्रवेश लिया परंतु विपरीत परिस्थितियों के कारण वे कॉलेज की शिक्षा अधूरी छोड़कर बालपुर लौट आए. पाण्डेय जी ने 12 वर्ष की अल्पायु में ही लिखना प्रारंभ कर दिया था. उन्होंने घर पर ही हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत, उड़िया तथा बांग्ला आदि भाषाएँ सीख ली. सन् 1909 ई. में उनकी पहली कविता आगरा से प्रकाशित पत्रिका स्वदेश बांधव में प्रार्थना पंचक नाम से छपी थी. जब मुकुटधर पाण्डेय मीडिल स्कूल में पढ़ते थे, तब उनकी लिखी हुई कविताएँ स्वदेश बांधव, हितकारिणी, इन्दु, आर्य महिला तथा सरस्वती में छपने लगी थीं. सन् 1931 ई. में पं. मुकुटधर पाण्डेय रायगढ़ के राजा चक्रधर सिंह के आग्रह पर सन् 1931 से 1937 ई. तक रायगढ़ के नटवर हाईस्कूल में अध्यापक रहे. उन्होंने सन् 1937 से 1940 ई. तक रायगढ़ स्टेट में व्दितीय श्रेणी दण्डाधिकारी का उत्तरदायित्व भी निभाया. छायावाद शैली के संबंध में सन् 1920 ई. में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका श्री शारदा के चार अंकों में उनकी लेखमाला ‘छायावाद’ शीर्षक से छपी. जुलाई सन् 1920 ई. में प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ में उनकी कविता ‘कुररी के प्रति’ छपी, जो छायावादी काव्यधारा की पहली कविता मानी जाती है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. रामविलास शर्मा, जयशंकर प्रसाद तथा डॉ. नामवर सिंह ने पं. मुकुटधर पाण्डेय को छायावाद का प्रवर्तक कवि माना है. उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं- पूजा के फूल (काव्य संग्रह), शैलबाला (अनुदित उपन्यास), लच्छमा (अनुदित उपन्यास), परिश्रम (निबंध संग्रह), हृदयदान (कहानी संग्रह), मामा (अनुदित उपन्यास), छायावाद और अन्य निबंध, स्मृतिपुंज, विश्वबोध (काव्य संकलन), छायावाद और अन्य श्रेष्ठ निबंध, मेघदूत (छत्तीसगढ़ी अनुवाद). महाकवि कालिदास से पं. मुकुटधर पाण्डेय बहुत प्रभावित थे। भारतीयता की रक्षा के लिए कालिदास के ग्रंथों की रक्षा को आवश्यक मानते थे. सन् 1928 ई. के कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन में पं. मुकुटधर पाण्डेय को राष्ट्रभाषा सम्मेलन के अध्यक्ष महात्मा गांधी तथा नेताजी सुभाषचंद्र बोस के साथ मंच पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. पाण्डेय जी श्वेुत केश और धवल दाढ़ी से युक्त प्राचीन ऋषियों जैसे दिखाई देते थे. उनको छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी से अगाध प्रेम था. हरि ठाकुर को एक पत्र में उन्होंने लिखा था- ‘‘हम छत्तीसगढ़ी भाई जहाँ भी मिलें, आपस में छत्तीसगढ़ी में ही बात करें.’’ उनके द्वारा छत्तीसगढ़ी में अनुदित मेघदूत कालिदास के मूल काव्य से कम रोचक नहीं है. पं. मुकुटधर पाण्डेय को पं. रविशंकर शुक्ल विश्व विद्यालय, रायपुर एवं गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर द्वारा डी.लिट. की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया था. दिनांक 26 जनवरी सन् 1976 ई. को भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया गया. दिनांक 6 नवम्बर सन् 1989 ई. को रायपुर में लंबी बीमारी के बाद पाण्डेय जी का देहांत हो गया. छत्तीसगढ़ शासन के स्कूल शिक्षा विभाग ने उनकी स्मृति में राज्य स्तरीय पं. मुकुटधर पाण्डेय स्मृति शिक्षक सम्मान स्थापित किया है.

राजा चक्रधर सिंह

राजा चक्रधर सिंह के पिता रायगढ़ के राजा भूपदेव सिंह थे. इनकी माता का नाम रानी रामकुंवर देवी था. चक्रधर सिंह के जन्म की खुशी में राजा भूपदेव सिंह ने रायगढ़ शहर में मोती महल का निर्माण कराया तथा पुत्रोत्सव को राजकीय गणेशोत्सव के नाम से प्रारंभ किया, जो गणेश मेला के नाम से पूरे देश में विख्यात हुआ. पारखी संगीतज्ञों एवं साहित्यकारों के सान्निध्य में शास्त्रीय संगीत एवं साहित्य के प्रति चक्रधर सिंह की अभिरुचि जागी. नौ वर्ष की उम्र में सन् 1914 ई. में उन्हें तबला नवाज ठा. लक्ष्मण सिंह की देखरेख में रायपुर के प्रतिष्ठित राजकुमार कॉलेज में दाखिला दिलाया गया. वे टेनिस, फुटबाल और हॉकी के अच्छे खिलाड़ी थे. कॉलेज के बाद उन्हें एक वर्ष के प्रशासनिक प्रशिक्षण के लिए छिंदवाड़ा भेजा गया. उनका विवाह छुरा के जमींदार की कन्या डिश्वरीमती देवी के साथ हुआ. भारतरत्न बिस्मिला खाँ ने उनकी शादी में अपने वालिद और साथियों के साथ शहनाई बजाई थी. उनके बड़े भाई राजा नटवर सिंह की अचानक मृत्यु होने पर 15 फरवरी सन् 1924 ई. को चक्रधर सिंह का राजतिलक किया गया. उन्होंने बेगार प्रथा बंद करवा दी. कृषि, शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया. रायगढ़ में बादल-महल, गेस्ट-हाउस, टाउन हाल, अस्पताल, नलघर, विद्युत व्यवस्था, पुस्तकालय आदि का निर्माण उन्हीं के शासन काल में हुआ. उनके दरबार में सदैव गुणीजनों का समुचित आदर-सत्कार किया जाता था. कहा जाता है कि उस समय भारत का ऐसा कोई भी महान कलाकार या साहित्यकार नहीं था जिसने राजा चक्रधर सिंह जी के दरबार में आतिथ्य और सम्मान न पाया हो. इनमें पं. ओंकारनाथ, मनहर बर्वे, नारायण व्यास, पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जैसे महान संगीतज्ञ तथा पं. महावीर प्रसाद व्दिवेदी, पं. माखन लाल चतुर्वेदी, भगवतीचरण वर्मा, पं. जानकी बल्लभ शास्त्री, डॉ. रामकुमार वर्मा, रामेश्वर शुक्ल अंचल, पं. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, पं. लोचन प्रसाद पाण्डेय एवं पद्मश्री मुकुटधर पाण्डेय जैसे महान साहित्यकार शामिल थे. डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र तो उनके दीवान थे, जबकि आनंद मोहन वाजपेयी उनके निजी सचिव थे. राजा चक्रधर सिंह ने पं. महावीर प्रसाद व्दिवेदी को ‘सरस्वती’ से अवकाश प्राप्त करने के पश्चात् जीवन पर्यन्त प्रतिमाह पचास रुपये की आर्थिक सहायता दी. राजा चक्रधर सिंह ने स्वयं भी संगीत सभाओं और सम्मेलनों में भाग लेकर मंच पर कई महत्वपूर्ण प्रदर्शन किए. उनके आमंत्रण पर जयपुर घराने के गुरु पं. जगन्नाथ तथा लखनऊ घराने के गुरु कालिका प्रसाद तथा उनके तीनों पुत्र अच्छन महाराज, लच्छू महाराज तथा शंभू महाराज रायगढ़ आए. संगीत और नृत्य के इन महान कलाकारों से रायगढ़ राज परिवार के लोगों के साथ ही संगीत तथा नृत्य में विशेष रुचि रखने वाले कई अन्य लोगों ने भी कत्थक नृत्य की शिक्षा प्राप्त की. राजा चक्रधर सिंह ने कत्थक की कई नई बंदिशें तैयार की. नृत्य और संगीत की इन दुर्लभ बंदिशों का संग्रह संगीत ग्रंथ के रूप में सामने आया, जिनमें मूरज चरण पुष्पाकर, ताल तोयनिधि, राग रत्न मंजूषा और नर्तन सर्वस्वं विशेष तौर पर याद किए जाते हैं. अपनी अनुभूति तथा संगीत की गहराइयों में डूबकर उन्होंने लखनऊ, बनारस और जयपुर कत्थक शैली की तर्ज पर एक विशिष्ट स्वरूप विकसित किया जिसे रायगढ़ घराने के नाम से जाना जाता है. सन् 1938 ई. में इलाहाबाद में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में राजा चक्रधर सिंह को अध्यक्ष चुना गया था. सन् 1939 ई. में दिल्ली में तत्कालीन वायसराय तथा देश के समस्त राजा-महाराजाओं की उपस्थिति में आयोजित अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में कार्तिक-कल्याण के नृत्य प्रस्तुतिकरण में उन्होंने तबले पर संगत की थी जिससे वायसराय तथा दतिया नरेश ने प्रभावित होकर उन्हें संगीत सम्राट की उपाधि से सम्मानित किया. राजा चक्रधर सिंह जी का हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, उड़िया, उर्दू तथा बांग्ला आदि कई भाषाओं पर अच्छा अधिकार था. वे स्वयं एक संगीतकार होने के साथ-साथ अच्छे लेखक भी थे. वे हिंदी काव्य में अपना उपनाम चक्रप्रिया तथा उर्दू में फरहत लिखा करते थे. उनकी साहित्यिक रचनाओं में अल्कापुरी तिलस्मी, मायाचक्र, रम्य रास, बैरागढ़िया राजकुमार, काव्य कानन, प्रेम के तीर, रत्नहार, मृगनयनी आदि प्रमुख हैं. जोशे फरहद और निगाहें फरहद उर्दू में लिखी उनकी प्रसिध्दक कृतियाँ हैं. राजा चक्रधर सिंह को पतंगबाजी का बड़ा शौक था. उन्होंने मोती महल के ऊपर एक विशाल कक्ष को पतंग एवं मंझा के लिए सुरक्षित रखा था. वे प्रतिवर्ष लखनऊ से पतंग उड़ाने वालों को आमंत्रित कर पतंग उड़ाने का दर्शनीय आयोजन कराते थे. राजा चक्रधर सिंह की दिलचस्पी कुश्ती में भी थी. उस समय के कई मशहूर पहलवानों को उन्होंने अपने राज्य में संरक्षण दिया था, जिनमें पूरन सिंह निक्का, गादा चौबे, तोता, गूँगा, गुर्वथा, मुक्का, बंशीसिंह तथा ठाकुर सिंह प्रमुख थे. उनके दरबार में जानी मुखर्जी तथा एम.के. वर्मा जैसे नामी गिरामी पेंटर थे जो पोट्रेट के अलावा पुस्तकों के चित्रों का भी निर्माण करते थे. दिनांक 7 अक्टूबर सन् 1947 को मात्र 42 वर्ष की अल्प आयु में ही राजा चक्रधर सिंह का निधन हो गया. संगीत के क्षेत्र में उनके विशिष्ट योगदान को ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश शासन ने भोपाल में चक्रधर नृत्यकला केंद्र की स्थापना की. रायगढ़वासियों ने नगर के एक मोहल्ले का नाम चक्रधर नगर रखा है. छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में कला एवं संगीत के लिए राज्य स्तरीय चक्रधर सम्मान स्थापित किया गया है.

संत गहिरा गुरु

संत गहिरा गुरु एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक एवं तपस्वी संत थे. उनका जन्म सन् 1905 ई. में रायगढ़ जिले के लैलूँगा विकासखंड के गहिरा ग्राम में हुआ था. उनके पिताजी श्री बुड़की कँवर एक संपन्न किसान तथा गाँव के मुखिया थे. माताजी का नाम सुमित्रा देवी था. गहिरा गुरु का असली नाम रामेश्वर कँवर था. रामेश्वर के गाँव में कोई पाठशाला नहीं थी. किसी साधु से रामेश्वर ने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया. रामेश्वर वनवासियों की दयनीय स्थिति से बहुत दुःखी थे. उन्होंने इन्हें स्वावलंबी बनाने का प्रयास किया. वे रात-रात भर जंगलों में भटकते. कभी-कभी समाधिस्थ हो जाते. समाधि टूटने पर वे साथी चरवाहों को प्रवचन सुनाते. रामेश्वर जी का विवाह क्रमश: पूर्णिमा देवी तथा गंगा देवी के साथ हुआ. रामेश्वर ने टीपाझरन नामक स्थान पर लगातार आठ दिन साधना की. अब वे पूर्ण भक्त बन गए. उन्होंने गहिरा में महाशिवरात्रि के दिन एक मंदिर का निर्माण कर उसमें शिवलिंग की प्रतिष्ठा की. वे मंदिर तथा अपने घर के बरामदे में प्रतिदिन संकीर्तन करते. वे स्वयं बाँसुरी बजाते तथा भाव-विभोर होकर नृत्य करते तो भक्तगण भी भक्ति-सागर में डूब जाते. लोग गहिरा गुरुजी कहने लगे. स्वच्छता अभियान में तेजी लाने के लिए गुरुजी ने अपने विश्वस्त 20 युवकों का दल बनाया. उन्होंने अपने साथियों के साथ पूरे गाँव की सफाई की ओर दो ही दिन में गाँव के सभी पेडों के चारों ओर चबूतरा बनाया. उन्होंने 1943 में गहिरा में सनातन धर्म संत समाज की स्थापना की. उनके सभी भक्त इसके सदस्य बन गए। समाज के लोगों की अपनी एक अलग पहचान हो इसके लिए वे सभी गहिरा गुरुजी के आदेश पर श्वेपत वस्त्र धारण करते, सुबह-शाम परिवार के बडों को ‘शरण’ (प्रणाम) करते, प्रत्येक गुरुवार को एक परिवार में सामूहिक रामचरित मानस का पाठ करते. प्रतिदिन एक मुठ्ठी चावल और चार आना समाज के लिए निकालते. साल में तीन दिन श्रमदान करते. गहिरा गुरु के हजारों स्वयंसेवी अनुयायियों ने घूम-घूमकर संत समाज के आदर्शों का जगह-जगह प्रचार प्रसार किया. परिणामस्वरुप रायगढ़, सरगुजा, बिलासपुर, जषपुर, झारखण्ड, उड़िसा एवं उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र के लाखों दलित एवं पिछडे़ वर्ग के लोग संस्था से जुड़ते गए. सामरबार, कैलाश गुफा, श्रीकोट, चम्पाक्षेत्र, अंबिकापुर, विश्रामपुर, सुपलगा, ककना, पत्थलगाँव, राजपुर, लैलूंगा, गहिरा में संस्था के आश्रमों की स्थापना की गई.

दिनांक 5 जनवरी सन् 1985 ई. में सनातन संत समाज संस्था का पंजीयन कराया गया. आदिवासी समुदाय के कल्याण के लिए गुरुजी द्वारा किए गए उल्लेखनीय योगदान हेतु उन्हें सन् 1986-87 ई. के इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय समाज सेवा पुरस्कार के लिए चुना गया. तात्कालीन राष्ट्रपति महामहिम ज्ञानी जैलसिंह ने उन्हें यह पुरस्कार दिया. मध्यप्रदेश शासन ने भी गहिरा गुरुजी को आदिवासी समाज सेवा कार्य में विशिष्ट योगदान के लिए मरणोपरांत बिरसा मुण्डा पुरस्कार तथा शहीद वीर नारायण सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया. दिनांक 21 नवम्बर, 1996 को गुरुजी का देहावसान हो गया. छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में गहिरा गुरु पर्यावरण पुरस्कार स्थापित किया है.

गजानन माधव मुक्तिबोध

महान कवि, कहानीकार और विचारक गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर सन् 1917 ई. को मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले के श्योंपुर में हुआ था. उनके पिता श्री माधवराव मुक्तिबोध पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर थे. उम्र के बढ़ने के साथ वे छोटी-छोटी कविताएँ लिखने लगे. सन् 1935 ई. में माधव कॉलेज उज्जैन की पत्रिका में उनकी पहली कविता ‘हृदय की प्यास’ छपी. उन्होंने सन् 1938 ई. में होल्कर कॉलेज इंदौर से बी.ए. पास किया. आजीविका के लिए मुक्तिबोध जी ने सन् 1937 ई. में बड़नगर में अध्यापन करने लगे. बाद में उन्हो ने मार्डन स्कूल उज्जैन, शारदा शिक्षा सदन शुजालपुर तथा हितकारिणी हाईस्कूल जबलपुर में भी अध्यापन कि‍या. उन्होंने 1937 में पारिवारिक एवं सामाजिक मर्यादाओं की परवाह न करते हुए ‘शान्ता’ से स्वेच्छा से विवाह किया. जबलपुर में मुक्तिबोध की क्रांतिकारी लेखक हरिशंकर परसाई और समालोचक प्रमोद वर्मा से भेंट हुई. सन् 1940 ई. में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के संपादन में प्रथम ‘तार सप्तक‘ का प्रकाशन हुआ. गजानन माधव मुक्तिबोध तार सप्तक के पहले प्रथम कवि थे. इसमें उनकी लिखी हुई सत्रह कविताओं का प्रकाशन किया गया था. इससे मुक्तिबोध जी रातों-रात पूरे देश में विख्यात हो गए. उन पर मार्कस्वाद, समाजवाद, अस्तित्ववाद, राम मनोहर लोहिया, कीकेगार्ड, अरविंद घोष आदि विचारकों का गहरा प्रभाव रहा.

कालांतर में वे नागपुर आ गए और आकाशवाणी नागपुर के समाचार विभाग में संपादक बन गए. उनहोने सन् 1956 ई. में साप्ताहिक समाचार पत्र ‘नया खून’ का संपादन किया. नागपुर एम्प्रेस मिल गोली काण्ड के समय नया खून के रिर्पोटर की हैसियत से वे मौजूद रहे. इसका मार्मिक चित्रण ‘अंधेरे में’ कविता में है. मुक्तिबोध एक समर्थ पत्रकार थे। वे अपने देश की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक दशा और अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर लगातार लिखते रहे. सन् 1958 में मुक्तिबोध ने पाठ्यपुस्तकें लिखकर जीविकोपार्जन किया। सारथ., कर्मवीर में उन्होंने स्तंभ लेखन किया. सन् 1953 से 1957 की अवधि में उन्होंने कविता, कहानी, डायरी, राजनीतिक लेखन पूरी सृजनात्मक ऊर्जा, दबाव और आत्म विश्वास के साथ किया. मुक्तिबोध जी सन् 1958 में छत्तीसगढ़ अंचल के शहर राजनांदगाँव आ गए. यहाँ किशोरीलाल शुक्ल जी ने उन्हें महाविद्यालय में हिन्दी का प्राध्यापक नियुक्त किया. अब तक उनकी दो पुस्तकें ‘नयी कविता का आत्म संघर्ष और अन्य निबंध’ तथा ‘कामायनी: एक पुनर्विचार’ छप चुकी थी. दिल्ली के आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइसेस में उपचार के दौरान 11 सितम्बर सन् 1964 ई. को उनका निधन हो गया. मुक्तिबोध जी की मृत्यु के बाद उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं. इनमें प्रमुख हैं- भारत का इतिहास और संस्कृति (आलोचना), सतह से उठता आदमी (आलोचना), काठ का सपना (कहानी-संग्रह) चाँद का मुँह टेढ़ा है (कविता-संग्रह), भूरी-भूरी खाक धूल (कविता-संग्रह), नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध (आलोचना), नए साहित्य का सौन्दर्य-शास्त्र (आलोचना), समीक्षा की समस्याएँ (आलोचना), विपात्र (उपन्यास), सतह से उठता आदमी (उपन्यास). मणिकौल ने मुक्तिबोध के उपन्यास सतह से उठता आदमी पर आधारित एक फिल्म बनाई है. मुक्तिबोध के काव्य-संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ को सन् 1964 ई. उनकी मृत्यु के उपरांत साहित्य अकादमी सम्मान मिला. छत्तीसगढ़ शासन के स्कूल शिक्षा विभाग ने उनकी स्मृति में राज्य स्तरीय गजानन माधव मुक्तिबोध स्मृति शिक्षक सम्मान स्थापित किया है.

मिनीमाता

मिनीमाता छत्तीसगढ़ की पहली महिला सांसद तथा कर्मठ समाज सुधारक थीं। उनका जन्म सन् 1913 ई. में होलिका दहन के दिन असम राज्य के नुवागांव जिले के जमुनासुख नामक गाँव में हुआ था. उनका असली नाम मीनाक्षी था. उनके पिताजी का नाम महंत बुधारीदास तथा माँ का नाम देवमती बाई था. इनके नानाजी छत्तीसगढ़ के पंडरिया जमींदारी के सगोना गाँव के निवासी थे. सन् 1901 से 1910 के मध्य जब छत्तीसगढ़ अंचल में भीषण अकाल पड़ा तो मीनाक्षी के नानाजी आजीविका की तलाश में सपरिवार असम चले गए और चाय के बागानों में काम करने लगे. मीनाक्षी ने असम में सातवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की. मीनाक्षी एक देशभक्त बालिका थी जो अल्पायु में ही गुलामी का मतलब और आजादी का महत्व जान चुकी थीं। वे अपने साथी बच्चों के साथ विदेशी वस्त्रों की होली जलाती तथा स्वदेशी का प्रचार-प्रसार करती थीं. मीनाक्षी के जीवन में एक नया मोड़ उस समय आया जब सतनामी समाज के गुरु अगमदास जी का धर्म प्रचार के सिलसिले में असम आगमन हुआ. गुरु अगमदास का कोई पुत्र न था. उन्होंने मीनाक्षी को अपनी जीवनसंगिनी के रूप में चुना और सन् 1932 ई. में उनसे विधिवत विवाह किया. अब गुरुपत्नी मीनाक्षी मिनीमाता के रूप में समाज में प्रतिष्ठित हुईं. विवाह के उपरांत मिनीमाता रायपुर, छत्तीसगढ़ आ गईं तथा यहीं पर उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. उनका हिंदी, असमिया, अंग्रेजी, बांग्ला तथा छत्तीससगढ़़ी भाषा पर अच्छा अधिकार था. मिनीमाता ने गुरु परंपरा के अनुसार संपूर्ण छत्तीसगढ़़ में अपने पति गुरु अगमदास के साथ भ्रमण कर सामाजिक कार्यों का अनुभव प्राप्त किया. मिनीमाता खादी पहनती थीं. पं. सुंदरलाल शर्मा, डॉ. राधाबाई, ठा. प्यारेलाल सिंह, पं. रविशंकर शुक्ल, डॉ. खूबचंद बघेल जैसे महान नेता उनके घर अकसर आते रहते थे. देश की स्वतंत्रता के बाद गुरु अगमदास सांसद चुने गए. सन् 1951 ई. में उनका अचानक स्वर्गवास हो गया. पं. रविशंकर शुक्ल की प्रेरणा से मिनीमाता मध्यावधि चुनाव में रायपुर से सांसद चुनी गईं. वे सन् 1952 ई. में रायपुर, सन् 1957 ई. में बलौदाबाजार एवं सन् 1967 ई. में जांजगीर-चाम्पा क्षेत्र से लगातार तीन बार लोकसभा के लिए चुनी गईं. मिनीमाता जी अस्पृश्यमता को समाज के लिए एक अभिशाप मानती थीं और देश के सर्वांगीण विकास के लिए इसे पूरी तरह से समाप्त कराना चाहती थीं. यही कारण है कि उन्होंने संसद में ऐतिहासिक ‘अस्पृष्यता निवारण विधेयक’ प्रस्तुत किया जो कि पारित भी हुआ. मिनीमाता ने देश की संसद में महिलाओं की दशा सुधारने के लिए निरंतर आवाज बुलंद की. उन्होंने महिला उत्पीड़न, दहेज प्रथा, अन्याय, बेमेल विवाह तथा बालविवाह आदि का कड़ा विरोध किया. उन्होंने कई जगह विधवा पुनर्विवाह संपन्न कराए. उन्होंने रायपुर में सतनामी आश्रम की स्थापना की. रायपुर स्थित अमीनपारा हरिजन छात्रावास की वे संस्थापक संचालक सदस्या थीं. उन्होंने छत्तीसगढ़़ मजदूर संघ का गठन किया था. मिनीमाता ने अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ तथा सतनामी महासमिति की भी स्थापना की थी. वे भारतीय दलित वर्ग संघ के महिला शाखा की उपाध्यक्ष भी थीं. छत्तीसगढ़़़ अंचल में कृषि तथा सिंचाई के लिए हसदेव बाँध परियोजना के निर्माण में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिक निभाई थी. दिनंक 11 अगस्त सन् 1972 ई. को भोपाल से दिल्ली जाते हुए पालम हवाई अड्डे के पास विमान दुर्घटना में उनका देहांत हो गया. छत्तीसगढ़़़ शासन ने उनकी स्मृति में महिला उत्थान के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए राज्य स्तरीय मिनीमाता सम्मान स्थापित किया है.

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