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छत्तीसगढ़ का स्थापत्य एवं कला

चित्रकला

  1. शैलचित्र छत्तीगढ़ में आदिमानव व्दारा निर्मित शैल चित्र सिंघनपुर, कबरा पहाढ़, ओंगना आदि के शैलाश्रयों में हैं. इनके विषय में विस्तार से हम प्रागैति‍हासि‍क छत्तीसगढ़ के अध्याय में लिख चुके हैं.
  2. ऐतिहासिक काल की चित्रकला सरगुजा में रामगढ़ में जोगीमारा गुफाओं में उपलब्ध भित्तिचित्र भारत के प्राचीनतम भित्तिचित्रों में से हैं. कैप्टेन टी. ब्ला‍श ने इन्हें 2000 साल से भी पुराना माना है. आर. के अग्रवाल ने ‘‘भारतीय चित्रकला का विकास’’ में इन्हें ईसा से 300 वर्ष पूर्व का माना है. इन चित्रों में चैत्य, गवाक्ष, घोड़ा गाड़ी, सारथी आदि हैं. एक चित्र में खजूर के नीचे मानव है. एक चित्र में नर्तकी का वाद्यों के साथ और हाथी के साथ जुलूस का चित्रण है. सीताबेंगरा में छत को लाल रेखाओं से विभक्त करके चित्र बनाए गए है. दीवार पर गाढ़े पदार्थ का लेप करके चिकना बनाया गया है और उसपर चित्र बनाए गए हैं. रामगढ़ में पाली भाषा में सुतनुका व कायदक्ष की गाथा भी अंकित हैं.

छत्तीसगढ़ के प्राचीन कला केन्द्र

प्रमुख केन्द्र हैं सिरपुर, मल्हार, रतनपुर एवं राजिम. भोरमदेव भी इन्हीं में शामिल है. यह कला केन्द्र प्राचीन काल में सोमवंश, पाण्डुवंश, नलवंश, कलचुरी वंश आदि के समय में विकसित हुए. सिरपुर की मूर्तियां हल्के लाल रंग के बलुआ पत्थर की हैं. यह गुप्‍कालीन मूर्तियों से प्रभावित हैं. सोमवंशी मूर्तियों में मुखमंडल कुछ गोलाई लिए है. कलचुरी कालीन मूर्तियां कुछ लंबाई लिए और अंडाकार हेाती थीं.

मंदिर

छत्तीसगढ़ का प्राचीनतम मंदिर बिलासपुर से 30 किलोमीटर दाक्षिण में ताला में हैं. इसे देवरानी एवं जेठानी का मंदिर कहा जाता है. यह लगभग पांचवी शताब्दी का माना जाता है. छत्तीसगढ़ के मंदिरों को तीन कालों में बांटा जाता है –

  1. ईंटों के मंदिर छठवीं से नौवीं शताब्दीं - इनमें सिरपुर का लक्षमण मंदिर और राम मंदिर, खरौद का शबरी मंदिर तथा इंदल देवल, पुजारीपाली का केंवटीन मंदिर, पलारी का सिध्देश्वर मंदिर तथा धोबिनी का चितावरी मंदिर उल्लेखनीय हैं. राजिम का राजीवलोचन मंदिर भी इसी श्रेणी में हैं. सिरपुर का लक्षमण मंदिर छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला की अनुपम कृति हैं. इसमें बाहरी दीवारों में ईटों को तराशकर नकली खिड़कियों, चैत्य आदि का अंकन किया गया है. इसका शिखर अर्धविकसित है. यह शिखर बास्तुकला की दृष्टि से गुप्त‍कालीन समतल छतों और मध्यगीन उन्नत शिखरों के बीच का है.
  2. पत्थ‍रों से बने कलचुरीकालीन अथवा मध्यकालीन मंदिर कलचुरियों के समकालीन अनेक राजवंशों ने मंदिरों का निर्माण कराया. इसमें कवर्धा के फणीनागवंश, बस्तर का चक्रकोट, कांकेर का सोमवंश आदि प्रमुख हैं. इनमें राजिम, नारायणपुर, आरंग, खल्लारी, तुम्माण, रतनपुर, मल्हार सारागांव, शि‍वरीनारायण, किरारीगोड़ी, पाली आदि के मंदिर हैं. कवर्धा के फणीनागवंश के राजाओं व्दारा निर्मित भोरमदेव का मंदिर बहुत प्रसिध्द है. इसे इस वंश के छठवें राजा गोपालदेव ने बनवाया था. इसकी शैली चंदेल शैली जैसी है और खजुराहों के मंदिरों से प्रभावित है. इसके अतिरिक्त इसी वंश के राजा रामदेव व्दारा 1349 में निर्मित मड़वामहल या दूल्हादेव का मंदिर भी प्रसिध्द है. बस्तर के चक्रकोट में नागवंशी राजाओं के बनवाये गये बारसूर के शिव मंदिर, मामा भनजा मंदिर, गणेश मंदिर आदि हैं, और काकतियों व्दारा निर्मित दंतेवाड़ा का देतेश्वदरी मंदिर है. नारायणपुर का विष्णु मंदिर और भैरमगढ़ के मंदिर उल्लेखनीय हैं. कांकेर के सोमवंशियों के मंदिर कांकेर, धमतरी एवं सिहावा में हैं, तथा सरगुजा में डीपाडीह में प्रचीन मंदिर हैं. इस काल के मंदिरों में वर्गाकार सभागृह है. यह मंदिर पंचरथ या सप्तरथ शैली के हैं. गर्भगृह के प्रवेश व्दार पर अलंकरण हैं जिसमें गंगा जमुना, लता वल्ली, सरीसर्प आदि बने हैं. ऊपरी ललाट पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि का अंकन है. देश में बहुत कम संख्या में सूर्य के मंदिर है, जिनमें प्रमुख कोणार्क मे है. इस श्रेणी में सरगुजा का डीपाडीह का मंदिर और नारायणपुर का मंदिर भी आते हैं. रेवन्त अथवा सूर्यपुत्र के मंदिर के निर्माण का वर्णन अकलतरा के एक शिलालेख में मिला है.
  3. कलचुरी काल के बाद के मंदिर मराठाकाल में भी कुछ मंदिरों का निर्माण हुआ जिसमें रतनपुर में रामटेकरी का मंदिर और रायपुर कर दूधाधारी मठ प्रमुख हैं.

मूर्तिकला

छत्तीसगढ़ में मूर्तिकला ईसापूर्व दूसरी शताब्दी से प्रारंभ हो गई थी. कालक्रम के अनुसार इन्हें चार वर्गों में विभाजित किया जाता है –

  1. ईसा पूर्व दूसरी सदी से पांचवी सदी तक (गुप्त वाकटक काल से पांचवी सदी) इसमें बिलासपुर के बूढ़ीखार (मल्हार) से देश की प्राचीनतम चर्तुभुज विष्णु की प्रतिमा मिली है. इसे चारो तरफ से उकेर कर बनाया गया है. इसमें यक्ष परंपरा का प्रभाव है और यह ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की है. तीसरी और चौथी शताब्दी की एक विशालकाय शिव प्रतिमा जिसका केवल धड़ मिला है और एक प्रतिमा अर्धनारीश्ववर की है. यह मूर्तियां मल्हार से मिली हैं और इनमें भी यक्ष प्रभाव दिखता है.
  2. गुप्तोत्तरकालीन शिल्प (500 से 800 ई.) इसमें गुप्त वाकटक काल के बाद शरभपुरीय, नलवंश, सोमवंश आदि की मूर्तियां हैं. इसमें मुख्य रूप से स्थापत्य के साथ बनी मूर्तियां हैं. इसमें ताला, सिरपुर, मल्हार, अड़भार, खरौद, शिवरीनाराण, राजिम आदि की प्रतिमाएं हैं.

    ताला में देवरानी जेठानी मंदिर से अनेक मूर्तियां मिली है. इनमें रुद्रशिव की मूर्ति बहुत महत्वपूर्ण है. इसका आकार 9’ X 4’ X 2.5’ है तथा वज़न 5 टन है. महाकाल रूद्र शिव की प्रतिमा भारतीय कला में अपने ढंग की एकमात्र ज्ञात प्रतिमा है. कुछ विव्दान बारह राशियों के आकार पर इसका नाम कालपुरूष भी मानते हैं. प्रतिमा के अंग-प्रत्यंग अलग-अलग जीव-जंतुओं की मुखाकृतियों से बने हैं, इस कारण प्रतिमा में रौद्र भाव साफ नजर आता है. प्रतिमा संपादस्थानक मुद्रा में है. इस महाकाय प्रतिमा के रूपांकन में गिरगिट, मछली, केकड़ा, मयूर, कछुआ, सिंह और मानव मुखों की मौलिक रूपाति का अद्भूत संयोजन है. मूर्ति के सिर पर मंडलाकार चक्रों में लिपटे 2 नाग पगडी के समान नजर आते हैं। नाक नीचे की ओर मुंह किए हुए गिरगिट से बनी है. गिरगिट के पिछले 2 पैरों ने भौहों का आकार लिया है. अगले 2 पैरों ने नासिका रंध्र की गोलाई बनाई है. गिरगिट का सिर नाक का अगला हिस्सा है. बडे आकार के मेंढक के खुले मुख से नेत्रपटल और बडे अण्डे से गोलक बने हैं. छोटे आकार की मछलियों से मुछें और निचला होंठ बना है. कान की जगह बैठे हुए मयूर स्थापित हैं. कंधा मगर के मुंह से बना है. भुजाएं हाथी के सूंड के समान हैं, हाथों की उंगलियों सांप के मुंह के आकार की है, दोनों वक्ष और उदर पर मानव मुखातियां बनी है. कछुए के पिछले हिस्से कटी और मुंह से शिश्न बना है. उससे जुडे अगले दोनों पैरों से अण्डकोष बने हैं और उन पर घंटी के समान लटकते जोंक बनी है. दोनों जंघाओं पर हाथ जोडे विद्याधर और कमर के दोनों हिस्से में एक-एक गंधर्व की मुखाति बनी है. दोनों घुटनों पर सिंह की मुखाति है, मोटे-मोटे पैर हाथी के अगले पैर के समान है. प्रतिमा के दोनों कंधों के ऊपर 2 महानाग रक्षक की तरह फन फैलाए नजर आते हैं. प्रतिमा के दाएं हाथ में मोटे दंड का खंडित भाग बचा हुआ है. प्रतिमा के आभूषणों में हार, वक्षबंध, कंकण और कटिबंध नाग के कण्डलित भाग से अलंकृत है. सामान्य रूप से इस प्रतिमा में शैव मत, तंत्र और योग के सिध्दांतों का प्रभाव और समन्वय दिखाई पडता है.

    अड़भार में व्दार स्तंभ और महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति मिली है. शिवरी नारायण की आयुध प्रतिमा आदि हैं. इस काल की बहुत सी मूर्तियां रायपुर के संग्राहलय में सुरक्षित है जिनमे सिरपुर के ध्यानीबुध्द, मुजूश्री, पार्श्वरनाथ रतनपुर की कल्याण सुंदर मूर्ति धमतरी के शिव मंदिर के व्दार आदि शामिल हैं.
  3. कलचुरीकालीन अर्थात् मध्यकालीन शिल्प (1000 से 1400) इस काल की मूर्तियों में मुखकृति कुछ लंबी है और ठुड्डियों में कूछ उभार है. होठ लंबे और पतले हैं. वस्त्राभूषण का आधिक्य है और भाव भंगिमा का पक्ष कम हो गया है. यह मूर्तियां बलुआ पत्थर और कुछ काले ग्रेनाइट से बनी हैं. देवताओं की मूर्तियों के अतिरिक्त राजा रानी सामंत आदि की प्रतिमाएं भी बनी हैं. यह मूर्तियां जांजगीर, शिवरीनारायण, मल्हार, खरौद, रतनपुर, पाली, तुम्माण, सिरपुर, राजिम, आरंग आदि में मिली हैं. रायपुर संग्रहालय में रतनपुर की स्थानक विष्णु, उमा-महेश्वर, राजपुरुष आदि बहुत सुंदर हैं. बिलासपुर संग्रहालय में भी सरगुजा और बिलासपुर की महत्वंपूर्ण प्रतिमाएं सुरक्षित हैं. भोरमदेव के मंदिर में भी इस काल की मूर्तिकला के श्रेष्ठ उदाहरण हैं. बस्तर के बारसूर में गणेश प्रतिमा विशाल आकार की है.
  4. गोंड मूर्तिशिल्प (1500 से 1700 ई) यह प्रतिमाएं सामन्यत: गोंड सरदारों और सिपाहियों की हैं. लगभग इसी काल की तीन बंदरों की मूर्ति रायपुर संग्रहालय में हैं जो गांधी जी के तीन बंदरों से मिलती जुलती है.
  5. धातु प्रतिमाएं सिरपुर से अनेक धातु प्रतिमाएं मिली हें जो उस समय की समृध्दि को दर्शाती हैं. धातु की 25 प्रतिमाएं मालगुजार श्यामसुंदर दास के अधिकार में थीं. इसमें सर्वश्रेष्ठ तारा की प्रतिमा है. इसे मुनि कांति सागर ने मुम्बई के भारत विद्या भवन को दिया था. आजकल यह लास ऐजेल्स के एक निजी संग्रहालय में है. ग्यारह प्रतिमाएं रायपुर संग्रहालय में हें. इनमें 3 बुध्द की हें. चार पद्मपाणि अवलोकितेश्वर की हैं, एक वत्रपाणि की हैं, दो मंजूश्री की और एक तारा की है. यह सभी बौध्दधर्म की वज्रयान शाखा से संबंधित हैं. सिरपुर के निकट फूसेरा से विष्णु की मूर्ति जांजगीर जिले के सलखन गांव से मिली पांच धातु मूर्तियां भी हैं.

सिक्के

छत्तीसगढ़ में विभिन्न प्रकार के सिक्के मिले हैं –

  1. ईसापूर्व के सिक्के रायपुर के तारापुर, आरंग, उडेला आदि स्थानों पर मौर्यकाल के पूर्व के कुछ सिक्के मिले है जिनका वज़न 12 रत्ती है. कौटिल्य के अनुसार मौर्यकालीन सिक्के 32 रत्ती के होते थे. इन सिक्कों पर हाथी, बैल, बिन्दुओं के घेरे में नेत्र और हल सहित बैल जोड़ी अंकित है. मौर्य कालीन सिक्के अकलतरा, ठठारी, बार एवं बिलासपुर में मिले हैं.
  2. मौर्योत्‍त्‍र काल के सिक्के सातवाहन वंश के राजा अपीलक की मुद्राएं रायगढ़ के बालपुर गांव में मिली हें. मघ वंश के शिव मघ और यमघ के सिक्के मल्हार में मिले हैं. सातवाहन वंश के अनुकरण में स्थानीय राजाओं ने तांबे के चोकोर सिक्के प्रचलित किए थे. इनमे अग्रभाग में हाथी की गद्दी और पृष्ठभाग में नाग अथवा स्‍त्री है.
  3. कुषाण कालीन सिक्के कुछ कुषाण सिक्के भी मिले हैं जो शायद बौध्द यात्री लाये होंगे.
  4. गुप्त कालीन सिक्के सन् 1969 में दुर्ग जिले के बानबरद में गुप्तकाल के 9 सिक्के मिले हैं. एक सिक्का काच का है, 7 सिक्के चंद्रगुप्त व्दितीय के हैं और एक कुमारगुप्त प्रथम का है. आरंग से भी कुमारगुप्त का एक चांदी का सिक्का मिला है.
  5. उत्पीडितांक अथवा ठप्पांककित मुद्राएं लगभग छठी सदी की यह मुद्राएं रायुपर के खैरताल, पितई गांव, आरंग के निकट रीवा, महासमुंद, बस्तर के एडेंगा, दुर्ग के कुलिया, रायगढ़ के साल्हेपाली, बिलासपुर के मल्हार, ताला, नंदौर आदि में मिले हें. लगभग एक-डेढ़ ग्राम वज़न के यह सिक्के पतले सोने की चादर से बने हैं. इनमें पीछे से ठप्पा लगाया जाता था. इनके लिए अंग्रज़ी में “Repousse coins” शब्द का उपयोग किया है. यह बीच में एक आड़ी रेखा से विभाजित हैं. ऊपर के भाग में गरुड़ अथवा नंदी हैं और नीचे के भाग में राजा का नाम पेटिकाशीर्ष ब्राह्मी लिपि में हैं. यह सिक्के महेन्द्रादित्य, क्रमादित्य एवं प्रसन्नमात्र के हैं. प्रसन्नमात्र शरभपूरीय वंश के थे. बाकी दोनो गुप्त वंश के माने जाते हैं.
  6. चांदी और तांबे के सिक्के बहुत से स्थानों पर चांदी और तांबे के सिक्के भी मिले हैं. इनमें बस्तर के नल वंश के तथा कुछ गुप्तवंश के भी हैं.
  7. सोमवंशी सिक्के इनके समय के सिक्के अधिक नहीं मिले हैं. बालपुर से केशरी लेखयुक्त एक स्वर्ण मुद्रा मिली है जो लोचनप्रसाद पाण्डेय के अनुसार महाशिव बालार्जुन के भाई की है.
  8. कलचुरीकालीन सिक्के सर्वप्रथम महिष्मणती शाखा के कृष्ण राज ने सिक्के जारी किए, परन्तु इनके अधीन छत्तीसगढ़ का बड़ा भूभाग नहीं था. इनकी मुद्राओं के अग्रभाग में लक्ष्मी का चित्रण है और पीछे राजा का नाम लिखा है. रतनपुर शाखा के जाजल्लदेव प्रथम ने अपने नाम के सिक्‍के चलाए थे. उसने सोने और तांबे के सिक्के चलाए. इसके बाद रतनदेव और प्रतापमल्ल ने भी सिक्के चलाए. रतनदेव और पृथ्वी‍देव के सोने, चांदी और तांबे के सिक्के मिले हैं जबकि प्रतापमल्ल ने केवल तांबे के ही सिक्के चलाए. इसके अग्रभाग पर हाथी पर आक्रमण करते हुए सिंह का चित्रण है और पीछे की ओर राजा का नाम है.
  9. नागवंशी सिक्के इनमें अग्रभग में दहाड़ता हुआ सिंह, कटार और सूर्य-चंद्र का अंकन है.
  10. मराठा और ब्रिटिश कालीन सिक्के मराठा काल में रघुजी का रुपया, नागपुरी रुपया, जबलपुरी रुपया हैं. ब्रिटि‍श काल में कागज के नोटों का चलन हुआ.
  11. विदेशी सिक्के - बिलासपुर के चकरबेडा में रोम की 4 स्वर्ण मुद्राएं और कुषाण मुद्राएं मिली हैं. सिरपुर से युवान नाम का चीनी सिक्का भी मिला है. यह सिक्के यात्रियों व्दारा लाये गये होंगे.

मुहरें एवं मुद्रांक

मल्हार से सिरिस, गामस एवं महाराज महेन्द्र साय नाम के मुद्रांक मिले हैं. केशवदेव और प्रसन्नमात्र की मुद्राएं भी मिली हैं. सिरपुर से नन्न राजा की मुद्रा मिली है और बौध्दमंत्र लिखी हुई मुद्राएं भी मिली हैं. बालपुर से बालकेवरी की एक पत्थरर की मुद्रा मिली है.

अभिलेख

बहुत से स्थानों पर पत्थर और ताम्रपत्र पर अभिलेख मिले हैं एवं एक स्थान पर काष्ठ का अभिलेख भी मिला है. कुछ पद्य में हैं पर अधिकांश गद्य में हैं. इनके विषय में रायबहादुर हीरालाल ने ‘इन्सिक्रप्‍शंस इन द सेन्ट्रल प्राविंसेज़ एंड बरार’ में, बी.बी. मिराशी ने ‘कार्पस इन्क्रिप्‍शंस इंडिकारम’ में और ‘इंस्क्रिप्‍शंस आफ द कलचुरी चेदि एरा’ में तथा बालचंद्र जैन ने ‘उत्कीर्ण लेख’ में लिखा है. मौर्यकालीन, सातवाहनकालीन, वाकाटक कालीन, गुप्त्कालीन तथा कलचुरीकालीन अभिलेख मिले हैं. इनमें रामगढ़ गुफा अभिलेख (दूसरी अथवा तीसरी शताब्दी, ईसा पूर्व) किरारी चंद्रपुर का काष्ठ अभि‍लेख (दूसरी सदी), सोमवंशी बालार्जुन के 27 ताम्रपत्र (600 -650 ई), नल राजा विशालतुंग का राजिम शिलालेख (700-740 ई), नागवंशी रानी गंगमहादेवी का बारसूर शिलालेख (1208 ई.), नरसिंहदेव का जतनपाल शिलालेख (1224 ई), टेमरा का सती स्मारक लेख (1324 ई), कवर्धा का मड़वा महल अभिलेख (1349 ई.), कांकेर के सोमवंशी भानुदेव का कांकेर शिलालेख (1124 ई), काकतियों का दंतेवाड़ा शिलालेख (14 सदी पूर्वाध) प्रमुख हैं. इन अभिलेखों से तत्कालीन राजाओं एवं समाज व्यवस्‍था की जानकारी मिलती है.

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