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सिंधु घाटी सभ्यता और छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ में सिंधु घाटी की सभ्य‍ता के समय के जीवन के पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिले है, यद्यपि कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि जब सिंधु घाटी की सभ्यता समापन की ओर थी, उस समय सरस्वती नदी में भयंकर बाढ़ आई थी, जिसके कारण वहां के लोग दक्षिण की ओर चले गए थे. उनमें से कुछ शायद छत्तीसगढ़ में आकर बसे होंगे. महानदी के किनारे प्रचीन बंदरगाह के कुछ प्रमाण मिले हैं जिससे लगता है कि उस समय महानदी में नौ परिवहन होता होगा, जो सिंधु घाटी की सभ्यता की याद दिलाता है.

पौराणिक संदर्भ -

पौराणिक काल का 'कोशल' प्रदेश, बाद में 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल' नाम से दो भागों में विभक्त हो गया था. प्रचीन 'दक्षिण कोशल' ही वर्तमान छत्तीसगढ़ है. छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी नदी महानदी उस समय 'चित्रोत्पला' कहलाती थी. इस नदी का उल्लेख मत्स्य पुराण, महाभारत के भीष्म पर्व तथा ब्रह्म पुराण में है.

महाभारत – भीष्मपर्व – 9/34
चित्रोत्पला चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा।
मन्दाकिनीं वैतरणीं कोषां चापि महानदीम्।।”

मत्स्यपुराण – भारतवर्ष वर्णन प्रकरण – 50/25
मन्दाकिनीदशार्णा च चित्रकूटा तथैव च।
तमसा पिप्पलीश्येनी तथा चित्रोत्पलापि च।।

रामायण काल में छत्तीसगढ़

वाल्मीकि रामायण में छत्तीसगढ़ के वनों का वर्णन है. कहते हैं कि राजा दशरथ के लिए पुत्र्येष्ठि यज्ञ करवाने वाले श्रृंगी ऋषि धमतरी के पास सिहावा में रहते थे, जहां महानदी का उद्गम भी है. वनवास के समय राम यहाँ आये थे.

हरि ठाकुर ने अपनी पुस्तक "छत्तीसगढ़ गाथा" में छत्तीसगढ़ को वेदकाल जितना प्राचीन बताया है. छत्तीसगढ़ पहले "कौसल" के नाम से जाना जाता था. वहाँ के राजा की पुत्री कौसल्या का विवाह अयोध्या के राजा दशरथ से हुआ था. इसलिए राम को छत्तीसगढ़ का भानजा मानते हैं. महारानी कौसल्या का पूरे भारत में एकमात्र मंदिर रायगढ़ बिलासपुर की सीमा पर कोसीर ग्राम में हैं. कौसल राज्य में बहुत से ॠषि थे - श्रृंगी, अत्रि, अगस्त, मतंग, माण्डकर्णी, शरभंग और सुतीक्षण. श्रृंगी ॠषि का विवाह राजा दशरथ की पुत्री शांता से हुआ था जिसे अंग के राजा लोमपाद ने गोद लिया था. हरि ठाकुर ने अपनी पुस्तक छत्तीसगढ़ गाथा में लिखा है कि अत्रिमुनि का आश्रम अतरमढ़ा में रहा होगा. मढ़ा मठ का अपभ्रंश है. इस नाम का एक गाँव धमतरी तहसील में है. छत्तीसगढ़ में वैद्यराज सुदेषण रहते थे जिन्होने संजीवनी बूटी का पता बताया था. अमरकंटक पर्वत से सिहावा पर्वत तक की पर्वत श्रेणियाँ ॠक्ष पर्वत के नाम से जानी जाती हैं. संजीवनी बूटी गंधमादन पर्वत पर मिली थी जो ॠक्ष पर्वत का अंग था. कहते हैं कि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम भी छत्तीसगढ़ में ही था. वह आश्रम तुरतुरिया गाँव में है. इसी आश्रम में उन्होंने रामायण की रचना की थी. निर्वासन काल में सीता भी तुरतुरिया में इसी आश्रम में रहीं. यहीं कुश और लव का जन्म हुआ.

महाभारत काल में छत्तीसगढ़

महाभारत काल में हैहयवंश के राजा मयूरध्वज रायपुर में शासन करते थे. वे बहुत ही पराक्रमी और दानी थे. उनके पुत्र ताम्रध्वज थे. ताम्रध्वज ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के घोड़े को पकड़ लिया था. इस कारण अर्जुन और ताम्रध्वज के बीच में युध्द हुआ. अर्जुन जब बहुत कोशिश के बाद भी ताम्रध्वज को हरा नही सके, तब अर्जुन ने कृष्ण से कारण पूछा. कृष्ण ने कहा कि मयूरध्वज कृष्ण भक्त और परमदानी हैं इसलिए अपराजेय हैं. अर्जुन मयूरध्वज की भक्ति और दानवीरता को परखने के लिये उनकी राजधानी गए और कृष्ण ने राजा से उसका आधा शरीर मांगा. राजा ने आरा मंगवाया और आँखें मूंद कर बैठ गये. जैसे ही लोग उन्हें आरे से काटने लगे, कृष्ण ने उन्हें रोक दिया और अपने परम भक्त को गले लगा लिया. हरिठाकुर अपनी पुस्तक "छत्तीसगढ़ गाथा" में कहते हैं कि छत्तीसगढ़ का श्रीपुर पहले मणिपुर के नाम से जाना जाता था. वहां के राजा चित्रांगद थे जिनकी पुत्री चित्रांगदा का विवाह अर्जुन से हुआ था. चित्रांगदा के बेटे का नाम बब्रूवाहन था. बब्रूवाहन ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के घोड़े को पकड़ लिया था. अर्जुन और बब्रूवाहन के बीच घोर युध्द हुआ जिसमे अर्जुन पराजित हुए और घायल हो गए. चित्रांगदा ने अर्जुन की सेवा की और उन्हें ठीक कर दिया. इसके बाद बब्रूवाहन को पता चला कि अर्जुन उसके पिता हैं.

बौध्द काल (मौर्यकाल) में छत्तीसगढ़

सन् 639 ई० में चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने सिरपुर की यात्रा की थी. उन्होने सिरपुर का वर्णन अपने यात्रा वृतांत में किया है. उनके अनुसार सिरपुर दक्षिण-कौसल की राजधानी थी. ह्वेनत्सांग ने लिखा है कि गौतम बुध्द सिरपुर में तीन महीने रहे थे. इसके संबंध में कथा है कि सिरपुर के राजा विजयस और श्रावस्ती के राजा प्रसेनजित के बीच युध्द हुआ. जब प्रसेनजित हारने लगे तो उन्होने गौतम बुध्द से अनुरोध किया कि सिरपुर के साथ संधि करा दें. विजयस ने शर्त रखी कि गौतम बुध्द को कुछ समय सिरपुर मे रहना होगा. बौध्‍द धर्म की महायान शाखा के संस्थापक बोधिसत्व नागार्जुन का आश्रम भी सिरपुर में ही था. उस समय छत्तीसगढ़ पर सातवाहन वंश की एक शाखा का राज्य था. कहा जाता है कि नागार्जुन का जन्म पहली शताब्दी में सुन्दराभूति नदी के पास स्थित महाबालुका ग्राम में हुआ था. हरि ठाकुर ने पुस्तक "छत्तीसगढ़ गाथा" में लिखा है कि सुन्दराभूति नदी आज की सोन्दुर नदी हैं और महाबालुका ग्राम आज बारुका कहलाता है. नागार्जुन महान लेखक थे. उन्होने तीस ग्रन्थ लिखे. वे आयुर्वेदाचार्य और रासायनज्ञ भी थे. उन्होने "रस-रत्नाकर" नामक ग्रंथ की रचना की है. नागार्जुन बाद में नालंदा विश्वविद्यालय के कुलगुरु बने. सिरपुर के एक अन्य विव्दान आचार्य बुध्‍द घोष थे, जो बाद में श्रीलंका चले गए थे.

मौर्य काल के बाद का प्राचीन छत्तीसगढ़

मौर्यकाल के बाद साम्राज्य का विभाजन हो गया और अनेक राजवंशों का उदय हुआ -

  1. बिहार (मगध) में शुंग वंश
  2. कलिंग में चेदि वंश
  3. दक्षिण में सातवाहन वंश

सातवाहन वंश

सातवाहन 200 ई० पूर्व से 60 ई० पूर्व के मध्य हुए थे. इस वंश के शतकर्णि (प्रथम) ने जबलपुर तक अपने राज्य का विस्तार किया था. बिलासपुर जिले में सातवाहन काल के कुछ सिक्के पाए गये हैं और सातवाहन काल की कुछ पाषाण प्रतिमाएं भी मिली हैं. बिलासपुर जिले में सक्ती के पास ॠषभतीर्थ के शिलालेख में सातवाहन राजा कुमारवर दत्त का उल्लेख है. महायान मत के प्रवर्तक नागार्जुन की सातवाहनों से मित्रता थी.

वकाटक वंश -

दुर्ग जिले में प्राप्त एक ताम्रपत्र वकाटक वंश का है. इस वंश का राज्य बहुत कम समय तक रहा.

गुप्तवंश -

इलाहाबाद शिलालेख में समुद्रगुप्त के विजय अभियान का वर्णन है. इसकी 14 वीं लाइन में कोटा परिवार के एक राजा को बंदी बनाने का विवरण है और 21 वीं लाइन में आर्यावर्त के अनेक राजाओं को हिंसात्माक रूप से नष्ट करने तथा वनक्षेत्रों के राजाओं को अधीन करने का वर्णन है. इनमें से प्रमुख व्याघ्र राजा था जिसका राज्य महाकान्तार (घना वन) धमतरी में सिहावा के आसपास था. शिलालेख की लाइन 22 में राजाओं व्दारा समुद्रगुप्त के आदेश पालन एवं उसके समक्ष सम्मान प्रदर्शित करने का वर्णन है. इलाहाबाद-प्रहस्ति शिलालेख की लाइन 12 एवं 20 में दक्षिण के अनेक राजाओं को अधिकृत करके बाद में स्वतंत्र कर देने का विवरण हैं. आरंग में मिले गुप्तकाल (छठवीं शताब्दि ईसवी) के एक शिलालेख में राजा भीमसेन के संबंध में कहा गया है कि वह राजर्षियों के परिवार का था. यह कादचित् उसके गुप्त अधिपतियों के संदर्भ में है, जैसा कि उदयगिरी गुफा शिलालेख में चन्द्रगुप्त‍-2 के लिए राजर्षि की उपाधि का प्रयोग किया गया है. छत्तीसगढ़ के बानबरद नामक जगह में गुप्तकाल के सिक्के मिले हैं. डॉ० हीरालाल शुक्ल, डॉ० कृष्णदेव सारस्वत, स्व. गंगाधर सामंत जैसे इतिहासवेत्ताओं का मानना है कि महाकवि कालिदास का जन्म छत्तीसगढ़ में हुआ था. उनके अनुसार कालिदास ने अपना पहला ग्रंथ "ॠतुसंहार" भी छत्तीसगढ़ में ही लिखा था.

राजर्षितुल्य कुल

छत्तीसगढ़ में कुछ ताम्रपत्र मिले हैं जिसमे राजर्षितुल्य वंश के शासक भीमसेन (व्दितीय) का उल्लेख है. राजर्षितुल्य नाम के राजवंश का शासन दक्षिण-कौसल में पाँचवीं सदी के आस पास था. कुछ लोगों का यह कहना है कि ये राजा महेन्द्र के वंशज थे, पर इसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता. राजर्षितुल्य नामक इस राजवंश की वंशावली महाराज सूर से आरम्भ होती है. इस वंश के महत्वपूर्ण शासक थे दयित वर्मा, भीमसेन (प्रथम), विभीषण. छत्तीसगढ़ में इस वंश का शासन सौ वर्षों से भी अधिक समय तक चला.

शरभपुरीय वंश -

इस वंश की राजधानी शरभपुर में थी जो वर्तमान उड़ीसा का सम्बलपुर है. कुछ लोगों का यह भी मानना है सिरपुर ही शरभपुर कहलाता था. शरभ राजा के बाद उनका पुत्र नरेन्द्र राजा हुआ। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा प्रसन्नमात्र था. इस वंश के अंतिम राजा का नाम प्रवरराज था. कुरुद में मिले ताम्रपत्र राजा नरेन्द्र के काल के हैं. राजा प्रसन्नमात्र के कुछ सोने के सिक्के भी मिले हैं. छठी सदी के अंत में शरभपुरीय राजवंश को पाण्डुवंशियों ने पराजित किया था.

पाण्डुवंश -

छठी सदी में पाण्डुवंशियों ने शरभपुरीय राजवंश को पराजित करने के बाद श्रीपुर को अपनी राजधानी बनाया. पाण्डुवंशी राजा सोमवंशी थे और वे वैष्णव धर्म को मानते थे। पाण्डुवंश के प्रथम राजा का नाम उदयन था. इसी वंश के राजा इन्द्रबल के चार पुत्रों का उल्लेख मांदक में प्राप्त अभिलेख में हैं. इन्द्रबल का एक बेटा नन्न पराक्रमी था. उसने राज्य का विस्तार किया था. बिलासपुर के खरोद के एक शिलालेख मिला है में राजा नन्न के छोटे भाई ईशान-देव का उल्लेख है. राजा नन्न के पुत्र महाशिव तीवरदेव को कौसलाधिपति की उपाधि मिली थी क्योंकि उन्होंने कौसल और उत्कल पर अपना अधिकार कर लिया था. राजिम और बलौदा में ताम्रपत्रों में महाशिव तीवरदेव के पराक्रम का वर्णन है. इसी वंश के राजा हर्षगुप्त की पत्नी का नाम वासटा था. वासटा मगध सम्राट सूर्य वर्मा की पुत्री थी. हर्षगुप्त की मृत्यु के बाद महारानी वासटा ने पति की स्मृति में श्रीपुर में लक्ष्मण मन्दिर का निर्माण करवाया था. यह मन्दिर उस काल की वास्तु कला का श्रेष्ठ उदाहरण है. हर्षगुप्त के पुत्र महाशिव गुप्त बालार्जुन भी कहलाते थे क्योंकि वे धनुर्विद्या में अर्जुन जैसे थे. वे सन् 595 ई. में राजा बने और उन्होने साठ वर्ष तक राज्य किया. उनके बहुत सारे ताम्रलेख और शिलालेख मिले हैं. बालार्जुन की माता वासटा देवी एवं पिता हर्षगुप्त वैष्णव थे परन्तु बालार्जुन शैव थे. उनकी राजमुद्रा पर नन्दी बना हुआ है. उनके सरंक्षण में शैव, वैष्णव, जैन व बौध्द धर्मो का समान रुप से विकास हुआ. इसी समय प्रसिध्द चीनी यात्री ह्वेनत्सांग भी यहाँ आये थे. सिरपुर में बौध्द विहार, प्रतिमाएँ और शिलालेख मिले हैं. सम्राट बालार्जुन ने कई कवियों, विव्दानों, कलाकारों को राजाश्रय दिया. सम्राट बालार्जुन के शासनकाल को छत्तीसगढ़ का "स्वर्णयुग" कहा जा सकता है. बालार्जुन के उत्तराधिकारी महाभव गुप्त विनीतपुर में बस गए. उसके पुत्र शिवगुप्त थे, और शिवगुप्त के पुत्र जनमेजय थे. जनमेजय ने त्रिकलिंगाधिपति की पदवी धारण की थी. जनमेजय के पुत्र का नाम महाशिव गुप्त ययाति था. उसने विनीतपुर का नाम ययाति नगर रखा था.

नलवंश -

नल नामक राजा से नल वंश का आरम्भ हुआ. इस वंश का समय 700 ई. है. नलवंश का मुख्य केन्द्र बस्तर था. इस वंश के राजा भवदन्त वर्मा बहुत ही पराक्रमी थे. उन्होंने बस्तर और कौसल क्षेत्र में राज्य करते वक्त अपने साम्राज्य को बढ़ाया. स्कन्द वर्मा इस वंश के और एक शक्तिशाली राजा हुए.

क्षेत्रिय राजवंश -

छत्तीसगढ़ में क्षेत्रिय राजवंशो का शासन भी कई जगहों पर था. इनमें प्रमुख थे:

  1. बस्तर के नल और नाग वंश
  2. कांकेर के सोमवंशी
  3. और कवर्धा के फणि-नाग वंशी

नलवंश

बस्तर के अड़ेगा से मिली स्वर्ण-मुद्राओं से पता चलता है कि नलवंशी राजा वराह राज का शासन ई 440 के आस पास बस्तर के कोटापुर क्षेत्र में था. उसके बाद नल राजाओं जैसे भवदन्त वर्मा, अर्थपति, भट्टारक का सम्बन्ध बस्तर के कोटापुर से रहा. कुछ विव्दानों का कहना है कि व्याध्रराज भी नल-वंशी राजा थे, जिनके राज्य का नाम महाकान्तर था और जिन्हें समुद्रगुप्त ने हराया था. नलवंश में एक और पृथ्वी राज चिकित्सा शास्र का ज्ञान भी रखते थे. उनके बाद विरुपराज राजा बने जिनकी तुलना सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के साथ ही जाती है. उनके पुत्र विलासतुंग पाण्डुवंशीय राजा बालार्जुन के समसामयिक थे. बालार्जुन की माँ ने सिरपुर में लक्ष्मण मंदिर निर्माण करवाया था. उसी का अनुकरण करके विलासतुंग ने राजिम में राजीव लोचन मंदिर का निर्माण करवाया. दसवीं सदी की शुरुआत में कल्चुरियों ने नल वंशियों को पराजित करके अपना राज्य स्थापित किया.

छिंदक नागवंश (बस्तर)

बस्तर के प्राचीन नाम के सम्बन्ध में अलग-अलग मत हैं. कुछ लोग उसे "चक्रकूट" तो कुछ "भ्रमरकूट" कहते हैं. नागवंशी राजा इसी "चक्रकूट" या "भ्रमरकूट" में राज्य करते थे. सोमेश्वरदेव छिंदक नागों में सबसे जाने-माने राजा थे. उन्होंने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया. उन्होने सन् 1096 से सन् 1111 तक राज्य किया. इस वंश के अंतिम राजा का नाम था हरिश्चन्द्र देव था और उसे वारंगल के काकतिया वंश के चालुक्य राजा अन्नमदेव ने हराया. चक्रकूट या भ्रमरकूट में छिंदक नाग वंशियों का शासन दसवीं सदी के आरम्भ से 400 सालों तक चला. लोगों में उनके प्रति आदरभाव था. अनेक विव्दान उनके दरबार में थे. उस समय की शिल्पकारी भी उच्चकोटि की थी. नाग वंशियों के शासन कार्य में महिलाओं का भी योगदान रहता था. पर नागयुग में सती प्रथा थी. नाग युग में संस्कृत और तेलगु दोनों भाषाओं को राजभाषा की मान्यता मिली थी. राजा न्यायप्रमुख भी होता था. वह मृत्युदण्ड देता था और मृत्युदण्ड को क्षमा भी करता था. नल राजा शिव और विष्णु के उपासक थे. वे ब्राह्मणों का आदर करते थे और उन्हें ज़मीन देकर अपने राज्य में बसाते थे. मूर्ति - शिल्प में हमें उमा-महेश्वर, महिषासुर, विष्णु, हनुमान, गणेश, सरस्वती, चामुंडा, अंबिका आदि की प्रमुख प्रतिमाएं मिली हैं.

फणि नागवंश -

कवर्धा में चौरा नाम का एक मंदिर है जिसे लोग मंडवा-महल के नाम से भी जानते हैं. इस मंदिर में प्राप्त शिलालेख में नाग वंश के राजाओं की वंशावली दी गयी है. नाग वंश के राजा रामचन्द्र ने यह लेख खुदवाया था. इस वंश के प्रथम राजा अहिराज कहे जाते हैं. भोरमदेव के क्षेत्र पर इस नागवंश का राजत्व 14 वीं सदी तक कायम रहा.

कांकेर के सोमवंशी -

सोम वंश का शासन छत्तीसगढ़ के कांकेर राज्य में 1125 ई. से 1344 ई. तक था. माना जाता है की सोम वंश पाण्डु वंश की एक शाखा थी. इस वंश के व्याघ्र राज ने भैरव के मंदिर के निर्माण के लिए कुछ भूमि का दान दिया था. कर्ण राज ने सिहावा में भगवान शिव का मंदिर और कांकेर में दूध नदी के तट पर रामनाथ मंदिर का निर्माण कराया. चंद्रसेन देव ने 1344 ई. तक शासन किया. चंद्रसेन देव सोम वंश के अंतिम राजा थे.

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