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छत्तीसगढ़ की ज़मीन्दारियां और रियासतें
छत्तीसगढ़ में जब कलचुरी सत्ता का हृास हाने लगा उस समय बहुत से छोटे-छोटे राज्य बनने लगे. रायपुर तो 14 वीं शताब्दी में रतनपुर से अलग हो ही गया था. इसी प्रकार 14 वीं शताब्दीं के मध्य में चौहान राजाओं ने ओडीशा के सम्बतलपुर क्षेत्र में प्रथक राज स्थापित कर लिया. कुछ समय बाद गढ़ा मंडला के गोंड राजा ने छत्तीसगढ़ के एक हिस्से पर अधिकार कर लिया. धीरे-धीरे अनेक छोटी रियासतें बन गईं.
मराठों ने प्रारंभ में तो ज़मीन्दारियों को समाप्त करके खालसा क्षेत्र में परिवर्तित करने का प्रयास किया परंन्तु बाद में उन्हें महसूस हुआ कि जमीन्दारियों के माध्यम से कर वसूली सरलता से की जा सकती है, इसलिये न केवल उन्होने ज़मीन्दारियों को बने रहने दिया बल्कि राजनांदगांव, छुईखदान, खुज्जी आदि नई ज़मीन्दारियां भी बनाईं. ज़मीन्दार मराठों को वार्षिक कर देते थे, जिसे टकोली कहा जाता था. अपने क्षेत्र का प्रशासन ज़मीन्दार स्वंतंत्र रूप से करते थे.1818 में ब्रिटिश शासनकाल में ज़मीदारियों को न केवल यथावत् रखा गया बल्कि इन्हें लिखित रूप भी दिया गया.
सन् 1854 में मराठा राज्य के पतन के बाद सन् 1855 में ब्रिटिश शासन ने पुरानी सनदों का नीवीनीकरण किया और उन्हें यथावत रखा. सन् 1862 में सर रिचर्ड टेंपल ने ज़मीन्दारों का नये सिरे से सर्वेक्षण किया और इसके आधार पर सन् 1864 में छत्तीसगढ़ के ज़मीन्दारों को दो समूहों में विभाजित किया गया. बड़ी ज़मीन्दारियों को रियासत कहा गया और उनके प्रमुख को फ्यूडेटरी चीफ और बाद में रूलिंग चीफ कहा गया. छोटी ज़मीन्दारियों के मुखिया ज़मीन्दार ही कहलाते रहे.
सन् 1865 में 14 रियासतों को अंग्रेज़ों ने मान्यता दी. इनमें से पांच – कालाहांडी, पटना, रायखोल, बांबरा और सोनपुर उड़िया भाषी रियासतें थीं. शेष 9 – बस्तर, कांकेर, राजनांदगांव, खैरागढ़, छईखदान, कवर्धा, शक्ति, रायगढ़ एवं सारंगढ़ हिन्दी भाषी थीं. सन् 1905 में उड़िया भाषी रियासतें बंगाल प्रांत के उड़ीसा में शामिल कर दी गईं, और बंगाल प्रांत के छोटा नागपुर से 5 रियासतें – सरगुजा, उदयपुर, जशपुर, कोरिया और चांगभखार को मध्यप्रांत के छत्तीसगढ़ संभाग में शामिल कर दिया गया. मध्यप्रांत में इन 14 के अतिरिक्त एक और रियासत माकड़ी थी, जो वर्तमान में मध्यप्रदेश के होशंगागद ज़िले मे है. सबसे बड़ी रियासत बस्तर थी. यह रियासतें कलेक्टर के नियंत्रण में ब्रिटिश शासन के अधीन थीं और इनके प्रमुख ब्रिटिश शासन के प्रति राजभक्त थे. इसके अतिरिक्त काफी बड़ी संख्या में ज़मीन्दारियां भी थीं.
इन रियासतों में राष्ट्रभक्ति और जनजागृति के अनेक उदाहरण हैं. बस्तर राज में गेंदसिंह के नेतृत्व में 1823-24 में नागपुर के भोसलो के विरूध्द संघर्ष किया था. सोनाखान के जमीदार रामदास ने 1818-20 में अंग्रेजों और मराठो के विरूध्द संघर्ष किया. गुरू बालकदास व्दारा अंग्रेजों के विरूध्द जनजागृति अभियान चलाया. गुरू बालकदास को अपने पक्ष में करने के लिये अंग्रेजों ने सन् 1820 में उन्हे राजा की उपाधि भी दी. गुरू बालकदास जी अंग्रेजों के षडयंत्र का शिकार हुए. अंग्रेजों ने गुरू के ठाठ-बाट और हाथी की सवारी के विरुध्द सवर्णो को भड़काया. गुरू बालकदास की हत्या औराबांधा (मुंगेली) के निकट सन् 1860 में करवा दी गयी. सोनाखान जमींदारी क्षेत्र में जमींदार वीर नारायण सिंह ने 1856 के अकाल के समय अनाज के गोदाम जनता के हित में खोल दिये जिसके कारण उन्हें अंग्रेज़ों का कोपभाजन बनना पड़ा और जेल भी जाना पड़ा. बाद में जेल से बाहर आकर उन्होने सैनिक एकत्र करके अंग्रेजों से विद्रोह किया जिसके कारण उन्हें 10 दिसम्बर 1857 को फांसी हुई. इसके अलावा भी अंग्रेज़ों से विद्रोह के अन्य कई उदाहरण हैं जैसे उदयपुर के राजकुमार, बस्तर के वेंकटराव बाबूराव आदि.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इन रियासतों का भारत गणराज्य में विलय किया गया. भारत स्वातंत्र्य अधिनियम 1947 के प्रावधानों के अनुसार देशी रियासतों को भारत संघ में विलय होने अथवा स्वतंत्र रहने का अधिकार था. अनेक रियासतें भारत गणराज्य में शामिल नहीं होना चाहती थीं. तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रयासों से सभी देशी रियासतों का भारत में विलय हो सका.
छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की रियासतों के विलय के लिए लायज़न आफसर का कार्यालय कटक में था. दूसरी ओर इन रियासतों ने भी रायपुर के राजकुमार कालेज में एकत्रित होकर अपना एक संघ – ईस्टर्न स्टेट यूनियन (पूर्वी रियासतों का संघ) बनाया. इस संघ ने 1 अगस्त 1947 से काम प्रारंभ कर दिया था. इसका नेतृत्व बस्तर और मयूरभंज कर रहे थे. इस संघ ने अपना एक संविधान भी बनाया. भारत सरकार ने इस संघ को मान्यता देने से इंकार कर दिया. सरदार पटेल में बस्तर के शासक प्रवीरचंद्र भंजदेव को चर्चा के लिए दिल्ली बुलाया.
कौंसिल आफ एक्शन इन छत्तीगसढ़ स्टेट्स तथा ठाकुर प्यारेलाल की भूमिका – छत्तीसगढ़ की रियासतों के भारत गणराज्य में विलय के उद्देश्य से कौंसिल आफ एक्शन इन छत्तीसगढ़ स्टेट्स का गठन किया गया. ठाकुर प्यारेलाल सिंह इसके अध्यक्ष एवं जयनारायण पांडे सचिव थे. इनके प्रयासों से संघ में मतभेद उत्पन्न हो गए. भुतपूर्व शासकों के एक सम्मेलन मे खैरागढ़ के राजा वीरेंन्द्र बहादुर सिंह ने कहा कि विशेष परिस्थितियो में सभी रियासतों का भारतीय संध मे विलय कर दिया जाय. कौंसिल एवं ठाकुर प्याारेलाल सिंह ने भी जनमत तैयार किया एवं एक प्रस्ताव भी पारित किया. इस बीच कोरिया, पटना एवं खैरागढ़ के राजा अपना पक्ष रखने 1 सितंबर 1947 को दिल्ली गए पर सरदार पटेल ने उनकी मांगें ठुकरा दीं. सरदार पटेल एवं रियासत प्रमुख 15 सितंबर 1947 को नागपुर मे मिले और 10 रियासतों के राजाओं ने विलय के समझौता पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए. इस बैठक में मध्यप्रांत के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल, गृह मंत्री व्दारिका प्रसाद मिश्र एवं गवर्नर मंगलदास पकवासा भी उपस्थित थे. इन सभी रियासतों को 9 जनवरी 1948 को मध्यप्रांत में मिला दिया गया.